Saturday, August 6, 2011



‍       तुम जब साथ थे 

      तुम जब साथ थे
      जीने की तमन्ना थी
      हर मुश्किल आसान थी
      चैन की बंसुरी थी
      गुलशन में बहार थी
      फूलों की बौछार थी
      दिल में अरमान थे
      जीने का मकसद था
      कुछ करने की चाह थी
      प्यार का एहसास था
      बाहों का सहारा था
      खुशियों की वादियां थीं
      सपनों का भंडार था
      हृदय में उल्लास था
      जीवन में बहार थी
      आशा की किरणें थीं
      सप्त सुरों का संगीत था
      रंगों की बरसात थी
      अपने साथ तुम ले गये
      जीवन की सारी खुशियां
      अब बची हैं वीरानियां
      और इंतज़ार की घड़ियां
                  पी. सुधा राव


           ये ज़ालिम दुनिया 
   यह दुनिया है ज़ालिमों की
   जीने देती है न मरने देती है
   न रिसते ज़ख्मों को
   मरहम लगाने देती है
   समय ने अगर घाव भरने चाहे
   ये ज़ालिम उसे कुरेद देती है
   दिल में गम से जलती आग को
   रीती रस्मों की हवा देती है
   धर्म का वास्ता देकर
   आग को और दहका देती है
   रग रग में बसे इस दर्द को
   न बाहर निकलने देती है
   न अंदर सिमटने देती है
   दर्दे गम की जलती शमा को
   तीखे कटाक्षों का तेल देती है
   रंजो गम से पीड़ित घावों पर
   शीतल अवलेह लगाना छोड़
   नमक छिड़कने पहुंच जाती है
   यह दुनिया बड़ी ज़ालिम है
   न जीने देती है न मरने देती है
         पी. सुधा राव




  ‍ जीने की तमन्ना
  छीन ली है नियति ने
  एक झटके में जीवन की श्री
  इस तिमिरमय हृदय में
  किस आशा की लौ जलाऊं
  दुःख का हलाहल भरा अन्तर में
  इसमें में उल्लास कहां से लाऊं
  उन खाक हुए अरमानों से
  किन सपनों की ज्योत जलाऊं
  इस उजड़े हुए गुलशन में
  किन उम्मीदों के गुल खिलाऊं
  इस दग्ध हृदय की तपन में
  खुशी के बीज कैसे बोउं
  इस ठूंठ बन गई जिंदगी में
  आमोद के अंकुर कैसे उगाऊं
  इस मरुस्थली मन में
  दो बूंद पानी के कहां से लाऊं
  इस सूख गयी सरिता में
  सलिल कहां से लाऊं
  इस बियावान जिंदगी में
  विलास के पल कहां से लाऊं
  चारों ओर फैला घना अंधेरा
  जीने की तमन्ना कहां से पाऊं
    पी. सुधा राव




          नेता बनने के चक्कर में ......
        पूछा मैंने अपनी प्रिय सखी से
        मुद्दे तो बहुत उठाती हो
        सद्भावना, प्रेम का पाठ पढाती हो
        भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाती हो
        गरीबों का दु:ख दर्द बांटती हो
        पराए का क्लेश गले लगाती हो
        जो कहती हो वो कर दिखाती हो
        अपनी मेहनत का कमाकर खाती हो
        आदर्श समाज सेविका हो
        तुम्हारे सब प्रशंसक हैं
        नेता क्यों नहीं बन जाती?
        अगले चुनाव में
        खड़ी क्यों नहीं हो  जाती
        वह बोली,
        चुनाव के बारे में क्या जानती हो
        मुझ जैसे अगर चुनाव लड़ेंगे
        जमाराशि भी अपनी गंवा बैठेंगे
        किस जमाने की बात करती हो
        वो दिन कबके बीत चुके
        छ: दशक पार हो चुके
        पहले जैसे नेता अब हैं कहां?
        देश के लिए कुर्बानी देने खड़े कहां?
        स्वार्थ छोड़ देश के लिए जीते कहां?
        अब तो नेता  वही बन सकता है ....
        मिश्री सी मीठी वाणी हो जिसकी
        अंदर स्वार्थ पिपासा भरी हो उसकी
        वोट पाने कुत्ते सी दुम हिलाए
        कुर्सी पाकर शेर सा गुर्राये
        लोमड़ी सी मक्कारी हो जिसमें
        कोयल सी चालाकी हो उसमें
        गेंडे जैसी खाल हो जिसकी
        गालियाँ सुनने की आदत हो उसकी
        चप्पल जूतों का वार सहने को हो तत्पर
        सड़े अंडे टमाटर की बौछार हो सर पर
        फिर भी कोई असर न हो उस पर
        मतलब के लिए गधे को बाप बना ले
        स्वार्थ साध अंगूठा दिखा दे
        बड़ी बड़ी परियोजनाएं बनाए
        अपना घर भरता जाए
        रोटी कपड़ा मकान का वादा दे
        जो रेत पे खींची लकीर बन जाए
        दूर अट्टालिकाओं में बैठे
        गरीबों की सेवा का दंभ करे
        आतंकवाद से देश जलता रहे
        वह सुरक्षा कर्मियों बीच बैठा रहे
        दूर खड़ा तमाशा देखता रहे
        सच्चाई का पाठ पढ़ाये
        खुद भ्रष्टाचार में डूबा जाए
        माहिर हो भाषण देने में
        अंतर हो उसकी कथनी करनी में
        बस सखी,
        हम आम इंसान ही भले 
        सच्चाई इमानदारी के पथ पे चलें
        दूसरों के दुःख दर्द समझे
        इंसान हैं इंसानियत बनाए रखें
        नेता बनने के चक्कर में
        हैवान न बने
                                  पी. सुधा राव



  ‍      बहुत मुश्किल है
   गम को पीकर जीना है बहुत मुश्किल

   आंसुओं को छिपाकर गम पीना है मुश्किल

   गम की सुरा को पीकर होश खोना है मुश्किल

   बीते दिनों की यादें भुला देना है मुश्किल

   यादों की चिता पे बैठ जीना है मुश्किल

   जिंदा लाश बनकर रहना है मुश्किल

   कफन का ताज पहने घूमना है मुश्किल

   तन्हा भरी ज़िन्दगी से उभर पाना है मुश्किल

   वज़ूद अपना खोकर रहना है मुश्किल

   साथी बिना जिंदगी जीना है बहुत मुश्किल

      पी. सुधा राव 



                
                      
                      


                      
                      




  


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