Wednesday, December 21, 2011
Saturday, August 6, 2011
तुम जब साथ थे
तुम जब साथ थे
जीने की तमन्ना थी
हर मुश्किल आसान थी
चैन की बंसुरी थी
गुलशन में बहार थी
फूलों की बौछार थी
दिल में अरमान थे
जीने का मकसद था
कुछ करने की चाह थी
प्यार का एहसास था
बाहों का सहारा था
खुशियों की वादियां थीं
सपनों का भंडार था
हृदय में उल्लास था
जीवन में बहार थी
आशा की किरणें थीं
सप्त सुरों का संगीत था
रंगों की बरसात थी
अपने साथ तुम ले गये
जीवन की सारी खुशियां
अब बची हैं वीरानियां
और इंतज़ार की घड़ियां
पी. सुधा राव
ये ज़ालिम दुनिया
यह दुनिया है ज़ालिमों की
जीने देती है न मरने देती है
न रिसते ज़ख्मों को
मरहम लगाने देती है
समय ने अगर घाव भरने चाहे
ये ज़ालिम उसे कुरेद देती है
दिल में गम से जलती आग को
रीती रस्मों की हवा देती है
धर्म का वास्ता देकर
आग को और दहका देती है
रग रग में बसे इस दर्द को
न बाहर निकलने देती है
न अंदर सिमटने देती है
दर्दे गम की जलती शमा को
तीखे कटाक्षों का तेल देती है
रंजो गम से पीड़ित घावों पर
शीतल अवलेह लगाना छोड़
नमक छिड़कने पहुंच जाती है
यह दुनिया बड़ी ज़ालिम है
न जीने देती है न मरने देती है
पी. सुधा राव
जीने की तमन्ना
छीन ली है नियति ने
एक झटके में जीवन की श्री
इस तिमिरमय हृदय में
किस आशा की लौ जलाऊं
दुःख का हलाहल भरा अन्तर में
इसमें में उल्लास कहां से लाऊं
उन खाक हुए अरमानों से
किन सपनों की ज्योत जलाऊं
इस उजड़े हुए गुलशन में
किन उम्मीदों के गुल खिलाऊं
इस दग्ध हृदय की तपन में
खुशी के बीज कैसे बोउं
इस ठूंठ बन गई जिंदगी में
आमोद के अंकुर कैसे उगाऊं
इस मरुस्थली मन में
दो बूंद पानी के कहां से लाऊं
इस सूख गयी सरिता में
सलिल कहां से लाऊं
इस बियावान जिंदगी में
विलास के पल कहां से लाऊं
चारों ओर फैला घना अंधेरा
जीने की तमन्ना कहां से पाऊं
पी. सुधा राव
नेता बनने के चक्कर में ......
पूछा मैंने अपनी प्रिय सखी से
मुद्दे तो बहुत उठाती हो
सद्भावना, प्रेम का पाठ पढाती हो
भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाती हो
गरीबों का दु:ख दर्द बांटती हो
पराए का क्लेश गले लगाती हो
जो कहती हो वो कर दिखाती हो
अपनी मेहनत का कमाकर खाती हो
आदर्श समाज सेविका हो
तुम्हारे सब प्रशंसक हैं
नेता क्यों नहीं बन जाती?
अगले चुनाव में
खड़ी क्यों नहीं हो जाती
वह बोली,
चुनाव के बारे में क्या जानती हो
मुझ जैसे अगर चुनाव लड़ेंगे
जमाराशि भी अपनी गंवा बैठेंगे
किस जमाने की बात करती हो
वो दिन कबके बीत चुके
छ: दशक पार हो चुके
पहले जैसे नेता अब हैं कहां?
देश के लिए कुर्बानी देने खड़े कहां?
स्वार्थ छोड़ देश के लिए जीते कहां?
अब तो नेता वही बन सकता है ....
मिश्री सी मीठी वाणी हो जिसकी
अंदर स्वार्थ पिपासा भरी हो उसकी
वोट पाने कुत्ते सी दुम हिलाए
कुर्सी पाकर शेर सा गुर्राये
लोमड़ी सी मक्कारी हो जिसमें
कोयल सी चालाकी हो उसमें
गेंडे जैसी खाल हो जिसकी
गालियाँ सुनने की आदत हो उसकी
चप्पल जूतों का वार सहने को हो तत्पर
सड़े अंडे टमाटर की बौछार हो सर पर
फिर भी कोई असर न हो उस पर
मतलब के लिए गधे को बाप बना ले
स्वार्थ साध अंगूठा दिखा दे
बड़ी बड़ी परियोजनाएं बनाए
अपना घर भरता जाए
रोटी कपड़ा मकान का वादा दे
जो रेत पे खींची लकीर बन जाए
दूर अट्टालिकाओं में बैठे
गरीबों की सेवा का दंभ करे
आतंकवाद से देश जलता रहे
वह सुरक्षा कर्मियों बीच बैठा रहे
दूर खड़ा तमाशा देखता रहे
सच्चाई का पाठ पढ़ाये
खुद भ्रष्टाचार में डूबा जाए
माहिर हो भाषण देने में
अंतर हो उसकी कथनी करनी में
बस सखी,
हम आम इंसान ही भले
सच्चाई इमानदारी के पथ पे चलें
दूसरों के दुःख दर्द समझे
इंसान हैं इंसानियत बनाए रखें
नेता बनने के चक्कर में
हैवान न बने
पी. सुधा राव
पी. सुधा राव
गम को पीकर जीना है बहुत मुश्किल
आंसुओं को छिपाकर गम पीना है मुश्किल
गम की सुरा को पीकर होश खोना है मुश्किल
बीते दिनों की यादें भुला देना है मुश्किल
यादों की चिता पे बैठ जीना है मुश्किल
जिंदा लाश बनकर रहना है मुश्किल
कफन का ताज पहने घूमना है मुश्किल
तन्हा भरी ज़िन्दगी से उभर पाना है मुश्किल
वज़ूद अपना खोकर रहना है मुश्किल
साथी बिना जिंदगी जीना है बहुत मुश्किल
पी. सुधा राव
Friday, June 10, 2011
लेखनी
हां, मैंने लिखे थे
कारनामें देश पे मिटने वालों के
सत्य, अहिंसा पे चलने वालों के
प्रशस्ति पत्र राजनीतिज्ञों के
गौरव गाथाएं देशवासियों के
विज्ञान के चमत्कारों के
प्रगति पथ पर बढ़ते कदमों के
नारी सुलभ लज्जा के
सहृदयता, सद्भावना, सौहार्द के
आपसी विश्वास, प्रेम, भाईचारे के
अब,
जैसे लेखनी थम गई है
लिखूं तो क्या लिखूं?
लिखूं क्या गाथाएं
स्वार्थ कामना धन पिपासा की?
या नैतिक पतन व संवेदनहीनता की?
या लिखूं कथाएं भ्रष्ट नीतियों की?
भ्रष्ट राजनीति अथवा भ्रष्टाचार की?
हर दिन होते नए घोटालों की?
या लिखूं कहानियां आज के मानव की?
जो आकांक्षाओं को पाने भाग रहा है
रिश्वत देकर स्वार्थ संवार रहा है
नैतिकता, निष्ठा, ईमानदारी से दूर हो रहा है
दंभ. अहंकार, वैमनस्य से लिप्त हो रहा है
झूठे आडम्बरों की चाशनी में लिपट रहा है
परोपकार, करुणा, परमार्थ से विहीन हो रहा है
रिश्ते. नातों अपनो को भी भूल रहा है
अपने में ही सिकुड़, सिमट कर रह गया है
अब लिखूं तो क्या लिखूं......
पी. सुधा राव
आइना
लगता है डर आइने से
नहीं चाहती देखना
प्रतिबिम्ब अपना
इसलिये नहीं कि
बद्सूरत हो गया है
पर सिर्फ इसलिये कि
वह याद दिलाता है
मेरी बेबसी की
निरीहता की
अभागेपन की
अश्रुपूरित नेत्रों की
अधूरेपन की
उनींदी रातों की
अस्तित्व हीन जीवन की
छवि दिखलाता है
टूटे अरमानों की
भस्म हुए सपनों की
आशाओं के तुषारापात की
कोहरे से ढके पथ की
उपहास उड़ाता है
सूनी ज़िन्दगी की
मेरे उजड़े चमन की
अक्स दिखलाता है
वर्तमान की
स्मृतियां जगाता है
अतीत की .....
पी. सुधा राव
चेत जा हे जनता जनार्दन
राजनीति बदनाम हुई
राजनेता पथ भ्रष्ट हुए
अनीति को मिला बढ़ावा
घूसखोरी का हुआ चढ़ावा
अनुशासन का हुआ सफाया
दुराचरण का हुआ फैलावा
जनता तू ही इसका जरिया है
तू ही इसका साधन है
तू ही इसका उद्गम है
तूने ही भ्रष्ट बनाया
नेताओं को अपने लिये
तू ही उससे चुनाव लड़वाता
तू ही उसे कुर्सी पर बैठाता
रिश्वत देकर काम करवाता
महलों के सपने दिखलाता
उन्हें तू पकवान खिलाता
कभी नौकरी पाने की खातिर
कभी बच्चों के दाखिले खातिर
कभी परमिट के वास्ते
तो कभी प्रमोशन के वास्ते
तू ही उनकी झोली भरता
अपनी स्वार्थ पूर्ती करता
लम्बी चौड़ी लिस्ट है तेरी
उससे लम्बी फेहरिस्त है उनकी
अरे! कभी सोचा है तूने ?
जो एक बार हो गये भ्रष्ट
देते रहेंगे तुझे बारंबार कष्ट
भेड़िये को एक बार बोटी दिखलाएगा
लार टपकाते चला आएगा
न मिलने पे तुझ पे चढ़ जाएगा
बोटी बोटी नोच खाएगा
तेरा समूल नष्ट हो जाएगा
फिर तू किधर जाएगा ?
चेत जा हे जनता जनार्दन
अब भी समय है चेत जा
अपनी खुदगर्जी न दिखा
देश की लुटिया न डुबा
भ्रष्ट करने का मसला
अंतर्मन से दे निकाल
....पी सुधा राव
यादों का सफर
स्याही सूख गई मेरे कलम की
पन्ने कोरे ही रह गये
ठीक मेरी ज़िन्दगी की तरह
जो चलते चलते अचानक रुक गई
जीवन को मरुस्थल बना गई
बालू की पर्तों सी शेष हैं यादें
इस रेगिस्थान में अब है क्या?
बस खारे पानी का सैलाब
बुझती नहीं जिससे कोई प्यास
थक गई हूं चलते चलते
इन यादों की मरुभूमि पे
परतें दर परतें उघड़ती हैं यादें
इन यादों के बोझ तले दबे
लगता है रास्ता बड़ा लम्बा
पकड़ने को न कोई सहारा
न कोई खम्बा
मन में न कोई उल्लास
खो गया है कहीं आत्मविश्वास
बोझिल लगती है ज़िन्दगी
मन में न कोई आस
जीने की न कोई चाह
बस यादों की गठरी ढोते ढोते
चलते जाना है तब तक
सासें चलती हैं तब तक
पता नहीं कब तक
...पी सुधा राव
ये मुस्कुराहट
मुस्कुरा रहे हो तुम
इस तरह मुझे देखकर
मुस्कुरा न सकते तुम
अगर इन तन्हाइयों से गुजरते
मेरी बेबसी पर मुस्करा रहे हो?
मुस्कुराहट गुम हो जाती
जो बेचैन दिल का हाल जानते
ओठों की ये मुस्कुराहट
हो जाती तुम्हारी गुल
मन के रिसते ज़ख्मों की
तड़प जो देख पाते
यूं न मुस्करा पाते तुम
मेरे एहसासों को
जो तिल तिल घुटते देख पाते
छिन जाती ये मधुर मुस्कान
मेरे रंजोगम से भरे अंतर में
जो तुम झांक पाते
आसान है मुस्कुराना
दीवार की तस्वीर पे टंगकर
मुस्कुरा न पाते इस तरह
झेलना पड़ता अगर
बोझिल मन का सफर
....पी सुधा राव
विडम्बना
कैसी है ये विडम्बना
घरों से कूड़ा बटोरते
सड़कों से गंदगी साफ करते
किंतु स्वयं हैं धूल धूसरित
धूल मिट्टी से सने हाथ पैर
मैले कुचैले कपड़े पहने
देखे जाते हैं हिकारत की नज़रों से
दूर सब हैं इनसे भागते
कुत्ते बिल्लियों को भी लोग हैं पालते
खिला पिला पास है सुलाते
अरे! ये तो इन्सान हैं, वाचाल हैं
पर ज़िन्दगी है पशु से भी बदतर
कैसी है ये विडम्बना
सने हैं सिमेंट बालू से हाथ पैर
बनाते हैं वो अट्टालिकाएं
पैरों में फटी हैं बिवाइयां
करते हैं ये भवन निर्माण
रहने को उनके घर नहीं
ठंड से ठिठुरती हथेलियां
वर्षा से गीली झुग्गियां
गर्मी के थपेड़ों से जूझते बच्चे
कैसी है ये विडम्बना
उपजाते हैं ये खाद्यान्न
वर्षा, शीत ग्रीष्म में झुलसते
खेतों में करते ये काम
भरते ये दूसरों के
दूकान और गोदाम
करते ये अथक परिश्रम
फिर भी खाने को इनके
भर पेट दाना नहीं
कैसी है ये विडम्बना
सूती, रेशमी ताने बानों से
बुनते हैं ये कपड़ा
अपनी कल्पनाओं से
नित नये प्रारूप देते
हर एक को मोहने वाले
रंग बिरंगे रंग इसमें भरते
दुकाने भरतीं इनके उद्यम से
पर पहनने को ढ़ंग के वस्त्र नहीं
दो जून की रोटी मय्यसर नहीं
कैसी है ये विडम्बना
न जाने एसे कितने भटकते हैं
चार दानों के लिये तरसते हैं
गरीबी में घिसटते हैं
पास में ही उनके बसते हैं
बड़े बड़े भवनों में रहते हैं
प्रतिदिन प्रीति भोज करते हैं
नित नये फैशन में ढलते हैं
बेशुमार दौलत से खेलते हैं
कमी न कोई इनके जीवन में
भागते हैं फिर भी ये
न जाने किसके पीछे
कैसी है ये विडम्बना?
---पी. सुधा राव
नारी की उत्पीड़ना
मैं नहीं जानती वह कौन था
वृहत उत्पीड़ना दे गया
मेरा अंग प्रत्यंग नोच गया
मेरी अस्मिता लूट गया
फिर भी दोष मुझे दे गया
सिर्फ उपयोगिता की वस्तु बना गया
मैं अपने में सिमटी सिकुड़ी रह गयी
काल कोठरी में कैद हो गयी
हर मर्द से घृणा हो गयी
सब ओर अंधेरा छा रहा
मार्ग न कोई सुझा रहा
हर पल दो हाथ मेरी ओर
बढ़ते आते दिख रहे
वे आखें वह वह्शीपन
हर पल सामने घूम रहा
उस ज़ालिम के दिये घाव
तन, मन को पीड़ा से भर रहा
बस लगता है धरती फट जाए
और उसमें देह मेरी समा जाए
लगता था सब आंखे घूर रहीं
नज़रें सब मेरा उपहास उड़ा रहीं
हिकारत की नज़रों से देख रहीं
जैसे मैंने कोई जघन्य अपराध किया
इस घर को कलंक का टीका दिया
इस समाज को कलुषित किया
क्यों मुझे परित्यक्त किया गया
क्या दोष था मेरा
क्या पाप था मेरा
क्या नारी हूं इसलिये दोषी हूं?
क्यों दो हाथ नहीं उठ आते?
मुझे थामने सामने क्यों नहीं आते?
मेरे आंसू क्यों पोंछ नहीं पाते?
मेरे दुःख को क्यों दूर नहीं भगाते?
मुझे गले क्यों नहीं लगाते?
मुझे क्यों नहीं अपनाते?
पता नहीं कितनी मासूम बालाएं
इस यंत्रणा की पीड़ा सहतीं
कैसा समाज है यह
कैसी विडंम्बना है यह
नारी को देवी बना पूजने वाले
नारी का उत्पीड़न कर जाते
उसकी ज़िन्दगी बोझिल बना जाते
पी. सुधा राव
विचारणीय प्रकरण
बलात्कार है समाज का ज्वलंत प्रसंग
यह है एक जघन्य अपराध
न जाने कितनी मासूम बालाएं
नन्हीं कलियों से लेकर खिलते फूलों तक
इस पैशाचिक वृत्ति की हैं शिकार
उनके कोमल तन मन पर है ये अत्याचार
यह मृत्यु से भी है भयंकर यातना
अति दुःखदायी है ये झेलना
बलात्कारी को दंड है अवश्यंभावी
क्या कारावास की सज़ा है काफी?
अपराधी को सजा मिले कुछ वैसी
आत्मग्लानि, अपराधबोध हो ऐसी
पश्चाताप करे वह जीवन भर
समाज से उसे बहिष्कृत करना होगा
उत्पीड़क का लेबल लगाना होगा
उसके मस्तक पर ऐसा दाग लगाना होगा
जग देखे और उठाये उस पर उंगली
देखें और कहें "देखो वह जा रहा कुकर्मी
करना होगा उसे घृणा भरी नज़रों का सामना
सहनी होगी उसे समाज की अवहेलना
उस मानसिक दौर से गुजरना होगा
उस पीड़िता के दर्द को पहचानना होगा
झोका जलती भट्टी में जीते जी जिसे
बधियाकरण भी दंड का एक विधान है
वहशीकरण का यह एक निशान है
जो अपराधी झेले अंदर ही अंदर
पर समाज में वह घूमे मुंह उठाकर
दंड मिले कुछ ऐसा दुष्कर
चल न सके वह सिर उठाकर
दूसरों को भी ये सबक मिले
इस कुकृत्य करने से वे डरें
....पी सुधा राव
क्रिकेट का साक्षात्कार
मैं चली क्रिकेट का देने साक्षात्कार
सोचा विश्व कप में चयन न हो सका
आई. पी. एल का मौका भी चूक गया
रणजीत ट्राफी भी हाथ से छूट गया
छोटा ही सही मौका मिला खेल का
अवसर मिला देने साक्षात्कार का
क्रिकेट तो है खेल बल्ले गेंद का
मैदान में भाग दौड़ का
भाग दौड़ नहीं सकती तो क्या
क्रिकेट(झींगुर) सा जा सकता है उछला
खैर....
आया दिन साक्षात्कार का
मैं चली बड़ी सज धज कर
मन में ढेर सा उत्साह भर
सोचा,
चयन करने वाले होंगे बड़े
खेल विषेशज्ञ न सही
बड़े बड़े खिलाड़ी होंगे
वे भी न हुए तो क्या
बड़े बड़े नेता अवश्य होंगे
साक्षत्कार के बहाने
होंगी उनसे मुलाकातें
प्रभावित उन्हें अगर कर सकी
क्रिकेट में स्थान न सही
चुनाव के टिकट की बात पक्की
चाहे मैं क्रिकेट खेलूं
या राजनीतिज्ञ बनूं
बस, देश का नाम रोशन करूं
दोनो हालातों में, जीत होगी मेरी
जनता की जेबें होंगी खाली
भरती जाएगी मेरी झोली
यही सोचते थी मैं बैठी
तभी पुकार आई, थी मेरी बारी
लेकर हरि का नाम, अंदर घुस गई
कमरे में जैसे ही मैं दाखिल हुई
नज़ारा देख वहां का घबरा गई
वहां थे एक वरिष्ठ खिलाड़ी
तीन थे वहां नेता करने राजनीति
तीन थे सचिवगण देने सलाहकारी
और साथ थे चार सुरक्षा बंदूकधारी
कमरे में मैं थी एक अकेली
जो साक्षात्कार देने पहुंची
अभिवादन करते ही
भारी भरकम कुर्सी पर बैठे
पूरी तरह उसमें समाए
पूछा एक बंद गले कोटधारी ने
क्या आप बल्ला उठा सकती हैं?
मैने कहा सर,
मैं तो बहुत कुछ कर सकती हूं
बल्ला क्या गेंद भी उठा सकती ह़ूं
मैं आप सब जैसी महान खिलाड़ी नहीं
आप लोग तो राजनीति में भी
क्रिकेट खेल लेते हो
प्रलोभनों का गेंद फेंक कर
वोटों का रन बटोर लेते हो
राजनीति की तरह क्रिकेट में भी
बल्ले, बल्ले ही तो है
आप सब महान हो
टोपी कुर्ता धारी नेता मुस्काए, पूछे
क्या आप चौका छक्का लगा सकती हैं
मैने कहा सर,
मैं "चौका" तो रोज लगाती हूं
बल्ले रूपी बेलन से
बड़े बड़ों के छक्के भी छुड़ाती हूं
तीसरे नेताजी मुस्काए और पूछा
विकेड का होत है जानत हो?
और उ का कहत हो गुगलवा फेंकत हो
चयनकर्ता खिलाड़ी महोदय सकपकाए
उन नेताजी के कान में फुसपुसाए,
गुगली कहते हैं, उसे बताए
नेताजी बोले, उही तो हम कह रहे
बोला, बोला का जानत हो
मैने कहा,
सर, मैं विकेड(Wicked) नहीं हूं
पर बड़े बड़े विकटों को उखाड़ सकती हूं
और गूगल में तो रोज उंगली करती हूं
यह सुनते ही उनमे से एक नेता ने
इशारा किया क्रिकेट महोदय की ओर
बोले पूछ लो क्या पूछना है
वैसे तो निश्चित हो गया है
उम्मीदवार चयनित हो गया है
क्रिकेट खिलाड़ी महोदय सोते से जागे
वैसे भी हो रहे थे बोर, बैठे बैठे
पूछा उन्होंने
क्या बाउलिंग कर सकती हैं?
मैंने कहा
सर, आप क्या कह रहे हैं
मेरी बाउलिंग (Boweling) तो साफ है
तुऱंत उनमें से एक वरिष्ठ नेताजी बोले
आप तो चयनित हो गयीं
सिर्फ कार्य क्षेत्र बदल गया
अगले चुनाव का टिकट
है आपको मिल गया
पाठकगण अभी न जाइये छोड़कर साक्षात्कार का भाग २ अभी बाकी है पढ़िये कल सुबह के ताजे समाचार के साथ। धन्यवाद।
पी. सुधा राव
क्रिकेट का सक्षात्कार
[ भाग २ ]
पाठकगण अब तक आप लोगों नेताजा समाचार पढ़ ही लिया होगा। अब थोड़ा समय दीजिये कि मैं अपने साक्षत्कार की दास्तान बयां कर सकूं
नेता जी ने घोषणा की जैसे ही
कि चुनाव की टिकट मुझे मिल गई
मैं बड़े पसोपेश में पड़ गई
थोड़ी घबराई थोड़ी निराश हुई
सोच रही थी, मिल तो गई टिकट
पर चुनाव जीतने का काम है विकट
न साधन है न मुद्रा है
न चेले हैं, न चमचे हैं
क्रिकेट राजनीति दोनों गये
मेरी मुख मुद्रा देख
नेता जी बोले
इन टिकटों के पीछे भागते सब
मौका छोड़ा है किसी ने कब
आपको मिल गई है टिकट मुफ्त
फिर भी हैं आप मायूस औ सुस्त
मैने कहा सर, वो बात नहीं
नेताजी बोले फिर क्या बात है
राजनीति में उतरना है
तो बिल्कुल बेशरम बनना है
अखबार मीडिया का सामना करना है
वादों का पुलिंदा खोलना है
पर भूल से भी अमल न करना है
भ्रष्टाचार, गरीबी हटाओ का नारा देना है
किंतु परोपकार नहीं स्वार्थ देखना है
बस, यही कुछ बातें याद रखना है
कुछ घबराते, कुछ सकुचाते
मैने कहा,
सर, मुझे कुछ कहना है
सर, मुझे कुछ कहना है
नेता जी बोले अब और क्या बाकी है
महिला कोटा में चयन हो गया है
अब क्या बचा है
मैने कहा
मुझे कुछ दिन पार्टी की सेवा करना है
थोड़ा अनुभव बटोरना है
फिर साधन, समर्थन भी तो जुटाना है
दूसरे नेता जी बोले
साधन की करती हैं क्यों बात
अभी तो है हमारा राज
कई बड़ी परियोजनाएं हैं पास
फिर कई छुट भैय्ये हैं साथ
कहीं न कहीं से उगाही कर लेंगे
समर्थन की चिंता न करें
साधन से समर्थन जुटा लेंगे
कहीं टी.वी. कहीं कपड़ा दान देंगे
जनता का पैसा जनता पर लुटा देंगे
वोट क्या हर माल जुटा देंगे
रही बात अनुभव की
उसके लिये डरिये नहीं
राबड़ी की तरह अंगूठा लगाइये
उसने लालू की मानी आप हमारी मानिये
मैने कहा सर,
वह सब तो ठीक है पर मुझे डर है
कहीं किसी घोटाले में न पड़ जाऊं
भ्रष्टाचार के दलदल में न फंस जाऊं
नेताजी बोले डरने की क्या बात है
भ्रष्टाचार तो हमारे रगरग में व्याप्त है
घोटाले पे घोटाले तो होते रहेंगे
आयोग पर आयोग बैठाए जाएंगे
यह सब सालों साल चलते रहेंगे
और हम मालामाल होते रहेंगे
जब तक होगी सुनवाई इन सबकी
शोभित करती होंगी आप मंत्री की कुर्सी
घोटाला, भ्रष्टाचार तो राजनीति का हिस्सा है
यहां जमीन जायदाद जुटाना पक्का है
अब सोचिये मत और काम में जुट जाइये
बस एक बात गांठ बांध लीजिये
कुछ बनना है तो हमारे इशारे पर चलिये
मैने धन्यवाद किया उनका
पर मन ही मन मुस्काई
राजनीति की बातें कुछ कुछ समझ आईं
मैने सोचा
कांसीराम की धोती पकड़
माया आगे बढ़ गई
माया आगे बढ़ गई
रामचन्द्रन का चश्मा पहन
जयललिता कुर्सी चढ़ गई
जयललिता कुर्सी चढ़ गई
मैं भी इनकी तरह सफल बन जाउंगी
राजनीति गुरुओं की
बिसात पर राजनीति चलाउंगी
बिसात पर राजनीति चलाउंगी
मुख्य मंत्री का पद
न भी मिले तो क्या
न भी मिले तो क्या
सोनिया की तरह
कटपुतली सा सबको नचाउंगी
कटपुतली सा सबको नचाउंगी
यही सब सोचते, पहुंची मैं वहां
अन्य अभ्यर्थी
अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे जहां
अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे जहां
पूछने लगे कैसा था साक्षात्कार
क्या है समाचार
मुस्कान आपकी बता रही
आप चयनित हो गयी
मैंने कहा हां चयनित तो हो गई
किंतु, क्रिकेट के लिये नहीं राजनीति के लिये
पाठकगण अब तो आप मुझे वोट देंगे न? जीतने पर घोटाले और भ्रष्टाचार का हिस्सा आपको अवश्य बनाउंगी।
धन्यवाद
पी. सुधा राव
तुम चले गये
तुम चले गए
मैं बुत बनी देखती रह गई
संज्ञा शून्य हो गई
जड़वत रह गई
सीने में रिसते ज़ख्मों को
मरहम लगाने की सुध ही न रही
बस यह सोचते रह गई
तुम अभी आ जाओगे
चार बातें कर जाओगे
पर, यह सब मिथ्या था
मेरा भ्रम जाल था
तुम इस तरह मेरी ज़िन्दगी से
अचानक गुम हो जाओगे
आएगी मेरे जीवन में व्यथा
सपने में भी न सोचा था
अब तो ज़िन्दगी में
जीने की ख्वाहिश न रही
और मौत
गले लगाने से दूर भाग रही
पी. सुधा राव
शब्द चुरा लिये हैं मैने
शब्द चुरा लिये हैं मैने
भाव हर लिये हैं मैने
नूतन विचार कहां से लाऊं
जो देखा उसे ही समझाऊं
देखती हूं चारों ओर अपने
जो लगते हैं भयानक सपने
हर ओर दिखते हैं यहां
अनाचार और अत्याचार
व्यभिचार व बलात्कार
नारी की सिसकती आवाज़
महंगाई से जूझता समाज
पीड़ित मानव का निनाद
कर्ज में डूबी गरीब की कराह
मानसिक दबाव तले बढ़ते बच्चे
मासूमियत खोते छोरी छोरे
नौकरी की तालाश में भटकते नवयुवक
परिवार का बोझ उठाते सिसक सिसक
अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते
जुल्म न सहन कर आक्रोश से चिल्लाते
सड़कों पर नारे लगाते
कहीं बस, कहीं पुतले जलाते
बदले की भावना से उबलते
हिंसा पर उतारू लोगों को
देखती हूं हर ओर
हर रोज यहां है होती
कहीं रिश्वतखोरी, कहीं जमाखोरी
कहीं काला बाज़ारी तो कहीं कलाकारी
पग पग पर स्वार्थ का दामन पकड़े
रग रग में भ्रष्टाचार भरे
मक्कारी झूठ के तले पनपते
देखती हूं टी. वी. चैनलों पे
हर रोज पढ़ती हूं अखबारों में
नेताओं को आरोपों से घिरे
कहीं भूमि अधिग्रहण के च्रर्चे
कहीं आपसी मतभेद के झगड़े
कर दाताओं के बल पे
सच करते अपने सपने
पैसे का यहां है बोल बाला
न्याय का है यहां मुंह काला
सच की यहां सुनवाई नहीं
आभाव की कोई भरपाई नहीं
समरथ को कोई दोष नहीं
इंसानियत की कोई गुंजाइश नहीं
बेईमान यहां बुद्धिमान है
सत्ता लोलुपों का मान है
सच्चा इंसान इससे अन्जान है
साहित्य तो समाज का दर्पण है
हम सबके मन का चित्रण है
जो प्रतिदिन देखा जाएगा
वही तो लिखा जाएगा
प्रकृति की गोद में बैठने का
शांति से कुछ सोचने का
आज के लेखक को वक्त कहां
रोजमर्रा की जिंदगी से वह जूझता यहां
दिन दिन सिमट रही है प्रकृति जहां
अट्टालिकाएं, औद्योगिक संस्थाने बन रही यहां
मानवता लुप्त हो गई पता नहीं कहां
मासूमियत छिन गई है जहां
आशाएं भग्न हो गई हैं यहां
विचारों की समानता है जहां
शब्द तो चुराने ही पड़ेंगे यहां
भाव तो छीनने ही पड़ेंगे वहां
अतः लेखनी से आपके
शब्द चुरा लिये हैं मैने
बुरा न मानिये
भाव छीन लिये हैं मैने
... ..पी. सुधा राव
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