Monday, November 8, 2010

टूटे पंख
सपनों के अर्वट मे
ढूड़ती हूं
कुछ बीते पल
कुछ बीती बातें
हसीन लम्हें
कुछ यादें
जो भस्म हो कर
कहीं खो गये।

उस नीड़ में
तलाशती हूं
वे पुलकित क्षण,
साथ का अहसास
कमनीय पल,
मनुहार की रातें,
बाहों का सहारा
सांसों की गरमाहट
पदचाप ध्वनि
आज यह
वीरान पड़ा है।
निःशब्द खड़ा है।
धूमिल हो गया है।

पुस्तकों के
उस आलय में
खोजती हूं निश दिन
उन पन्नों पर
दौड़ती आंखें,
वे हाथ, जो उनको
पकड़ते थकते न थे,
वह मस्तिष्क, जो
दिन भर पढ़ते
न होता क्लान्त।

लिपि, जिसको
प्रतीक्षा है
उन उंगलियों की
लिखे जिसने
अनेक पृष्ट,
वे कागज
कोरे हैं, पड़े हैं
धूल धूसरित
बिखरे हुए
मेरे गुलाबी सपनो के
टूटे पंखों की तरह
---पी सुधा राव


नारी तुम गरिमा हो
नारी अपनी गरिमा को पहचानो
अपनी क्षमता को कम न आंको।
तुम दया, त्याग की मूर्ती हो,
शक्ति का स्तोत्र हो,
सहिष्णुता का अवतार हो ,
शर्मो, हया की खान हो,
ममता का भंडार हो,
संस्कारों की रक्षक हो,
शिशु की पहली शिक्षक हो,
परिवार की नींव हो,
समाज की शिलाधार हो।
भूलना न कभी इन गुणों को
किंतु, अन्याय सहकर नहीं,
अत्याचार झेलकर नहीं,
उत्पीड़न पाकर नहीं।
आवश्यकता पड़ने पर
चंडी का रूप धर लो।
जुल्मों के खिलाफ लड़ लो।
पापों का विनाश कर दो।
तुममें दुर्गा की शक्ति है।
लक्ष्मी, सरस्वती का संगम है।
अपने साहस से आगे बढ़ना है।
बलबूते पर अपने खड़े होना है।
तुम क्रीड़ा की वस्त्तु नहीं,
प्रदर्शन-मंजूषा में रखी चीज़ नहीं,
विलास की सामग्री नहीं,
किसी की धरोहर नहीं,
दया, भिक्षा की पात्र नहीं,
तुम्हारा अपना अस्तित्व है।
तुम्हारी अपनी पहचान है।
क्षेत्र चाहे शिक्षा का हो
या फिर हो राजनीति का,
प्रोद्योगिकी, वाणिज्य, कला,
विज्ञान, वकालत या अन्य का
तुम्हे श्रम से अग्रणी होना है।
तुम जननी, पत्नी, भगनी, पुत्री
सर्व रूप में पथ प्रदर्शक हो।
कंधे पे टिका है देश तुम्हारे
उत्थान तुम्हारे हाथों है।
नारी तुम देश की गरिमा हो
प्रशस्ति पथ पर चले चलो
---पी सुधा राव

चित्रण
वाह! रे चित्रकार तूने क्या नाम कमाया
नारी की सौन्दर्यता से लेकर हर विषय अपनाया।
इतनी लक्ष्मी व कीर्ती पाकर, क्या तेरा पेट नहीं भर पाया?
मां भारती को निर्वस्त्र कर तुझने क्या पाया?
मां सरस्वती की देन से ही तेरे हाथों यह कला आई।
मां लक्ष्मी की कृपा से ही हुई तेरे खज़ाने की भराई।
अरे! तू यह भी भूल गया कि मां, मां होती है,
वह कोई हिंदू, मुसलमान, सिक्ख,या इसाई नहीं होती है।
मां, भारती तो जननी की भी जननी है।
यह वसुन्धरा तो करोड़ों की पोषक है।
इस धरती पर जन्मे अनेकों इस के रक्षक हैं।
यह मां हम सब भारतीयों की शान है।
जिसकी गरिमा बचाने हेतु हजारों सिपाही कुर्बान हैं।
इसकी शस्य श्यामला भूमि पर खेलकर तू बड़ा हुआ
पढ़ा लिखा और इस योग्य हुआ।
अरे! उसी मां भारती को तूने निर्वस्त्र किया
धिक्कार है, धिक्कार है।
--पी सुधा राव
आज का रावण
युग युग से पढ़ते आये हैं रामायण
अधूरी है गाथा वह बिन रावण
उस युग में रावण था सिर्फ एक
आज डगर, डगर पर खड़े रावण अनेक
वह रावण दैत्य के रूप में नर था
आज का रावण नर के रूप में है दैत्य
राजा रावण था वेद वेदांतों का ज्ञाता
वीणा, आयुर्वेद, राजनीति का पंडित
आज का रावण है अज्ञान से सुशोभित
पढ़ाई के नाम पर बटोरता है सिर्फ डिग्रियां
ज्ञान के नाम पर विद्या की उड़ा दी धज्जियां

आज का रावण अपनाता है सिर्फ राज
नीति का यहां राजनीति में न कोई काज
हर हथकंडे उपयोग कर चाहता है पाना सत्ता
पद पर रह, विरोधियों का करता साफ पत्ता
उस रावण ने लक्षमण को मृत्यु शैय्या के पास
दिया राजनीति का पहला गुरु मंत्र व पाठ
पाने के लिये पड़ता है रहना चरणों के पास
आज का रावण चाहता है पाना शिक्षा
गर्व से, कर धन, बंदूक व लाठी का प्रहार
घिरा हुआ है वह चमचों और चाटुकारों से
तलुवे सहलवा, अंगूठा दिखा निकल जाता साफ

भगिनी की कटी नाक के प्रतिशोध में
जो कर न पाया था वैदेही से वरण
उस रावण ने छल से किया सीता हरण
हर कर भी जानकी को उसने न था छुआ
मर्यादा पूर्वक अशोक वाटिका में था रखा
आज के रावण की अमर्यादा की सीमा नहीं
प्रति दिन कहीं न कहीं होता है सीता हरण
बलात्कार कर मौत की भी देता है यंत्रणा
धन सत्ता के बल पर वह घूमता निर्दोष बना

वह रावण था शिव भक्त, शूर वीर और साहसी
उसने अपने लंका राज्य को बचाने खातिर
उठा लिये आयुध और किया युद्ध बन वीर
बचाने अपनी प्रजा व राज्य को, दे दी सर्वस्व बलि
आज का रावण जुटा है अपने ही लोगों को लड़ाने
भाषा, जाति, धर्म, प्रदेश के नाम पे सब कुछ मिटाने
चूकता नहीं वोट के नाम पर गरीब की लुटिया डुबाने
वह अपने ही देश वासियों को लूट खसोट रहा है
अपनी लोलुपता के आगे मदान्ध हो जी रहा है

उस दशानन के थे दस शीश ज्ञान के वे थे प्रतीक
छः उपनिषद के, व चार थे चार वेदों के प्रतिरूप
आज के रावण का है सिर्फ एक शीश, दस शीश समान
परिपूर्ण है जो काम, क्रोध, मद, लोभ रूपी वेद से
स्वार्थ, दंभ, छल, धूर्तता, ईर्ष्या अन्याय रूपी उपनिषद से
उस रावण की तरह ही महत्वाकांक्षी है यह रावण भी
फर्क सिर्फ इतना है वह दूसरों पे अन्याय था करता
और आज का रावण अपनों को भी लूटने से न चूकता

उस रावण का पुतला जला विजयदशमी हम मनाते
असत्य पे सत्य की विजय का पताका हम फहराते
आज के रावण के पाप को है जड़ से उखाड़ना
पापी पर विजय पा, प्रयत्न कर स्वच्छ समाज है बनाना
इस रावण को पराजित करने के लिये आवश्यक है
जन्म लेने की, एक नहीं अनेकों रामों की
अनिवार्य है इस पापी के पापों के उन्मूलन की
सही अर्थों में होगी जय, विजयदशमी मनाने की

----- पी. सुधा राव















दंश
मेरे हरे भरे उपवन में
उल्लसित पूर्ण प्रकृति में
किसने यह दंश चुभो दिया
अकस्मात यह हरियाली
मरुस्थल बन गयी

आनंद परिवर्तित हुआ पीड़ा में
हृदय में वेदना का तूफान उठा
जब जब उसे सुलाने का प्रयत्न किया
फन उठा कर भुजंग की तरह खड़ा हुआ
व्यथा की वृहत उत्पीड़ना हुई
विष की तरह जीवन में व्याप्त गई।

हर तरह से दूर ढकेलने की चेष्टा की
जलधि की लहरों सी वापस आ खड़ी हुई
डूबते जहाज की भांति ही
हृदयसिंधु तल में समा गई।

पीड़ा को समेटने की कोशिश की
तो उफनती गंगा सी विस्तृत हुई
बाढ़ का प्रकोप दिखलाती
अंग प्रत्यंग को लील गई।

जब इसे भुलाने का प्रयत्न किया
दुग्ध शर्करा की तरह,
जीवन में घुल गई
कैसी है ये दंश वेदना
सर्वस्व मेरा निगल गई।
-----पी. सुधा राव










एकीकार हो जाऊं
खोई हुई खुशियों को
कहां ढूड़ू. कैसे पाऊं
इस उजड़े चमन को
कैसे बटोरूं, कैसे सहेजूं
नीरस हो गयी ज़िंदगी को
किस रस से सिंचित करूं
तप्त हृदय की दग्धता को
किस नीर से शीतल करूं
निश दिन क्रंदित मन को
कौन सी थपकी से सुलाऊं
इस तड़पते दिल को
कैसे संतावना दूं
वेदना के अगाध सागर में
डूबती नौका को कैसे बचाऊं
खो गये अस्तित्व को
कहां से ढ़ूड़ लाऊं
इस बुझे हुए अंतर्मन को
किस लौ से आलोकित करूं
अनेकों दैत्य हैं मुंह बाये खड़े
इनकी सुलगती अंगारों से कैसे बचूं
इस निराशा भरे जीवन को
किस आशा की ज्योत से जलाऊं
इस वीरान ज़िन्दगी में
कैसे मैं बहार लाऊं
अब तो बची है सिर्फ एक कामना
मिलूं तुमसे और एकीकार हो जाऊं
----- पी सुधा राव












फुटबाल की व्यथा
जी, हां मैं एक फुटबाल हूं
पर मेरी कोई हस्ती नहीं
गति है सरकारी फाइल जैसी
फरक है सिर्फ इतना
वह होती हस्तान्तरित
और मैं पदान्तरित
एक ने लात मारी
दूसरा चूकता नहीं
जूते की ठोकर मारता
उछालता तीसरे की ओर
चाहते तो सब हैं
पास आऊं मैं उनके
सिर्फ इसलिये कि
पा सकूं मैं लक्ष्य उनका
नहीं बैठाना चाहते
सिर माथे मुझे
किसी तरह छू भी लूं
अगर माथा किसी का
तुऱंत फेंक दिया गया
किसी और के
जूते की ठोकर के लिये
पहुंच भी गया अगर
'गोल' में किसी तरह
वापस भेजा 'गोली' ने
सहने पद प्रहार को
पा जाऊं यदि लक्ष्य
अपने 'गोल' को
वाहवाही होती है
' किक्' मारनेवाले की
मैं तो सिर्फ एक फुटबाल हूं
उस गरीब की तरह
पड़ा हूं सहने सिर्फ प्रहार को
चोट खाकर भी देता हूं
वाह वाही, धन दौलत दूसरों को।
-----पी. सुधा राव


धर्म एक कर्म
धर्म एक आस्था है
यह एक विश्वास है
मन की भावना है
हृदय की भक्ति है
जीने की एक शक्ति है
अंतःकरण की पुकार है
यह श्रद्धा उसके प्रति है
जो अंतर्यामी, सर्वव्यापी है
कण, कण में विद्यमान है
हम सब में उपस्थित है
अनेकों रूप में प्रस्तुत है
जिस रूप में चाहे उस रूप में
लोग उसे भजते हैं,
उसे आज़ान देते हैं
उसे पुकारते हैं
कभी अपने स्वार्थ के लिये
कभी अपनों के लिये
फिर क्यों है ये भेदभाव
धर्म के नाम पे टकराव
जब उसकी सत्ता है एक
फिर क्यों मतभेद अनेक
भूल गये इस धर्म से
परे एक धर्म और है
जो श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है
और वह 'मानव धर्म' है
जो प्रेम का प्रतीक है
दया की अविरल धारा है
परमार्थ का भंडार है
सहिष्णुता से अभिभूत है
दूसरों के प्रति संवेदनशील है
आपत्ति का रक्षक है
स्वार्थ से परे है
सेवा ही जिसका ध्येय है
एक दूजे का सहायक है
हर पल, हर क्षण
हर गम, हर सुख में
साथ होने का वचन है
यह सब धर्मों का सार है
हर धर्म बिना इसके निस्सार है
क्यों न इसे हम अपना लें
विश्व के कोने, कोने में फैला दें
------पी. सुधा राव

















कर्ज़
कैसे करूं मैं कर्ज़ अदा उनका
मुश्किल में जो साथ थे मेरे
सुख में जो मेरे इर्द गिर्द थे
दुःख की घड़ी में वे भाग खड़े
औपचारिकता निभाने आये थे
निभाकर शीघ्र वे चलते बने
उम्र गुज़र गई पहचानने में
इन इन्सानों के मकसद को।
ऊपर से दिखते ये देव
अंदर से हैं सब दानव

कैसे धन्यवाद करूं मैं उनका
भावुकता से कंठ अवरुद्ध हुआ
कैसे चुकाऊं मैं ऋण उनका
अत्यादिक दुःखित समय में
खड़े हैं जो हाथ थामे मेरे
अत्यंत आभारी हूं मैं उनकी
कष्ट में जो बन गये अज़ीज़ मेरे
श्रद्धा सुमन अर्पित है उनको
संताप के कठिन काल में
बन गये जो मेरे अपने।
---पी. सुधा राव


















आदमी झुलस रहा
क्यों होता है आदमी ऐसा
चंद सिक्कों पे वो है बिकता
ईमान से क्या धरा शून्य हुई
विलासिता के आगे क्या झुक गई
दौड़ रहा है हर आदमी
क्या कुछ पाना है लाज़मी
निन्यानबे के फेर में वो है पड़ा
भेद न कर पा रहा बीच भला बुरा
सुख शांति उसी में खोज रहा।
धन, वैभव, विलासिता, ऐश्वर्य सब
बन गये जीवन के मूल आधार
भूल गया क्षमा, वेदना, सेवा निस्वार्थ
हर पग पे ढूड़ता है सिर्फ स्वार्थ
गागर में सागर डुबाने की सोच रहा
इस भाग दौड़ में न जाने
उसका क्या, क्या छूट रहा
छोटी छोटी खुशियां न देख रहा
मृगमरीचिका सी खुशियों के
पीछे पागल सा भाग रहा
खुशियों को बांटना भूल गया
गम के सागर में कूद रहा
आकाक्षाओं की मंजिल पाने
में ही आदमी है झुलस रहा।
---पी. सुधा राव
















मैं कवि बन गयी
लगता है मैं भी उड़ जाऊं
कल्पना लोक में पहुंच जाऊं
कुछ कविताएं लिख पाऊं
बहुतेरे लिख रहे हैं
मैं, उनमें से एक हो जाऊं
सोचा मुश्किल क्या है काम
चुटकी बजाते हो जाएगा नाम
यह कोई आलेख नहीं
पन्ने रंगने ने का काम नहीं
चंद शब्दों में भाव व्यक्त है करना
छंद मुक्त ही तो है लिखना
मात्रा, दोहा, वर्णो का क्या काम
भाषाओं की खिचड़ी पका
हंसी, प्रेम का तड़का डाल
परोसना है एक पन्ने पर
शीघ्र एक रीम कागज मंगा
चार छः कलम साथ रख
बैठी मैं कविता लिखने
दिन में पांच छः न सही
लिख लूंगी दो चार ही
सोचा था जो है अति सुगम
बन गया वह अति दुर्गम
घंटों बैठे रहने पर भी
कागज़ रह गया कोरा
कलम रह गया अचल
शब्द रहे आपस में उलझ
विचारों में न थी कोई सुलझ
न भावों का सैलाब उमड़ा
न अभिव्यक्ति की क्षमता
मन ने व्यंग से पुकारा
पूछा. क्या बन गई कवि?
कागजों के पुलिन्दों का
अब क्या कूड़े में है धरना?
इस व्यंग का हुआ यूं असर
श्री गणेश की मूर्ती सामने रख
माता सरस्वती की वंदना कर
लिखना मैने प्रारम्भ किया
पन्ने पर पन्ने रंगने लगे
फिर सिमट कर तुड़े मुड़े
गोल लड्डू जैसे बन गये
कमरा बना कूड़े का ढेर
लगा, द्रौपदी जैसे बैठी हो
मध्य चीर अम्बार के
हिम्मत न हारी फिर भी मैने
कवि बनने की कविता लिख डाली।
---पी. सुधा राव