Monday, May 31, 2010

 तुम बिन   
तुम बिन ज़िन्दगी है सूनी।   
बर्फ के चादर सी ठंडी,
खुशियां विहीन,
निष्पन्द, निश्क्रिय
जो गम के धूप से पिघलती
आंसू, गम, दर्द समेटे
सुख ,चैन, शांति गर्त में दबाये
बेजान सी पड़ी है।
काली घाटाओं की तरह,
मन की व्यथा,
नयनों के नीर
आकुल हैं
बरसने के लिये।
पल पल सालता है
चुभता है रीतापन।
ये सूनी रातें,
ये खाली दिन।
कठिन है, कठिन है
जीना तुम्हारे बिन।

-- पी. सुधा राव



सांसद

एक सांसद घर आते ही बोले
अजी! सुनती हो,
हमारा वेतन भत्ता बढ़ गया।
घरवाली ने कहा आश्चर्य से,
अजी! इन पांच सालों में
सांसद में मुंह नहीं खोला आपने,
टी.वी.पर न पड़े दिखलायी,
जुटे थे करने अपनी खूब कमाई।
बच्चों को भी खूब संवारा
कालेजों में सीट दिलाई,
बढ़ाई महंगाई,बेरोज़गारी
फिर भी हुई आपके वेतन में बढ़ाई?
सांसद बोले
अरी!
किस्मत वाली हो,
जो सांसद की पत्नी हो।
कारों में फिरती फ्री में,
ट्रेनों में घूमती ए. सी. में।
अरी, मैं तो कहता हूं,
लड़ो तुम भी चुनाव अगली बार।
एक बार बनो सांसद,
मज़ा लूटो बार बार।
सत्ता में हो या विपक्ष में,
काम करो अपने ही पक्ष में।
आनंद उठाओ मुफ्ती का
फोन, कार, ट्रेन या अन्य का।
पांच साल के लिये बनो सांसद,
जीते दम तक पाओ पेंशन
भले ही करो ना कोई काम,
ज़िन्दगी भर पाओ ऐशो आराम।
अजी, जहां सांसद की बात है,
पक्ष विपक्ष सब साथ है।
पूरे देश पर हमारा राज है।
पूरे देश पर हमारा राज है।

-- पी. सुधा राव


सीता - एक नारी
माता सीता करती हूं वन्दना चरणों की तेरे।
राम के गुणगान से भरी है रामायण
पिता के वचनों को निभा, अपना पुरुषार्थ दिखा,
चौदह वर्ष वनवास बिता, राम बने पुरषोत्तम महान।
आज भी करते हैं, लोग उनका गुणगान।
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

तुम भी थी राजकुमारी।

फूलों सी कोमल, सबकी राजदुलारी।
सभी सुखों को दे तिलांजली,
वन को चली तुम सुकुमारी
बन पति की सहभागी।
सब दु:ख, दर्द तूने बाटी।
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

रावण का मन तुझ पे आया,

वह ले तुझे उठा भागा
फिर भी दोष तुझी पे आया
कि, स्वर्ण मृग तूने क्यों मांगा।
लंका में उन नर पशुओं के मध्य
अकेली थी तू
विरह वेदना से तप्त
मर्यादा की सीमा में रह,
मानसिक यातनाएं झेलती।
तेरी पीड़ा क्या कम थी?
माता तेरी तपस्या क्या कम थी?

हर सुख, दु:ख में दिया साथ तूने राम का
हो गई कहां चूक जो विश्वास नहीं पाया प्यार का।
पग पग पर तुझे ही क्यों दोषी ठहराया?
अग्नि परीक्षा देने पर भी
क्यों सबका जी नहीं भर पाया।
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

एक अज्ञान पुरु के कहने पर
हे गर्भिणी, तुझे वन भिजवाया
वन में दे जन्म दो पुत्रों को,
पाल पोस कर बड़ा किया।
हर विद्याओं से पारंगत कर
अकेले, उन्हें हर योग्य बनाया‍
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

सुदूर वन में बिताये तूने हर क्षण

अपनों से रह अलग, दु:ख समेटा पलपल।
उस राम राज्य से न ली किसी ने तेरी सुध
तेरी सहनशीलता को किसी ने न बखाना
तेरी वेदना को किसी ने ना आंका,
न समझा या तौला
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

तूने तो सर्वस्व छोड़ा पाने को साथ राम का।
राम ने क्या छोड़ा पाने को साथ तेरा?
राज्य, भाई, बंधु सब पास ही तो थे
हर सुख, दु:ख में उनके अपने ही साथ थे।
गुणगान करते लोग फिर भी राम की
जानते नहीं रामायण अधूरी बिन जानकी
माता क्या तेरी तपस्या कम थी ?

उस युग से इस युग तक नारी वहीं की वहीं है।
उसकी कार्य पटुता, क्षमता का कोई मोल नहीं।
शोषित है, वह आज भी
गुजरती है, हर अग्नि परीक्षा से
उसकी तपस्या का कोई मोल नहीं
कोई तोल नहीं।
क्या नारी की तपस्या कम है?
क्या सीता का दर्जा राम से कम है?
कभी नही, कभी नहीं।

-- पी. सुधा राव


मां गंगा
मां गंगे मनु की पुत्री,
हिमालय से बंग खाड़ी तक बहती।
शिव के शीश पर चढ़ कर भी
तू गर्वित नहीं होती।
भागीरथ ने कड़ी तपस्या कर
उतारा तुझे पृथ्वी पर।
हे! पतित पावनी तूने
न जाने कितने पापों को धो डाला।
अपना अमृत जल पिला,
असंख्यकों को जीवन दान दिया।
तेरे पवित्र जल में न जाने
कितने नर नारियों ने नहाया।
पशु पक्षियों ने ही नहीं,
अनगिनित जलजीवों ने जीवन पाया।

हज़ारों सालों से इस देश का इतिहास तूने देखा
राजा महाराजाओं की हर हार, जीत को मापा।
न जाने कितनों को अपनी गोद में समाया,
उनके दुःख, दर्द, आशा, निराशाओं को समझा।
किंतु, क्या किसी ने तेरी सुध ली?
तेरी पीड़ा को तौला?
उल्टे तुझमे कूड़ा कर्कट फेंका।
मृत नर ,पशु, पक्षी ही नहीं
सब द्रव्य, रसायन घोला।
इतना प्रदूषित कर भी शांति न मिली,
गंदगी भरी नालियों को तुझमें मिलाया।
गंगा सफाई अभियान के नाम पर
करोड़ों रुपया खाया।
तेरा उज्जवल गात बदल गया श्यामल में
फिर भी तू अबाध गति से बहती जा रही।
चुपचाप दर्द सब सह रही।

दशकों पूर्व मालवीय जी ने
दूर दर्शिता दिखायी थी।
ब्रिटिश सरकार से तुझ पर
बांध न बनवाने की कसम दिलाई थी।
पर हाय! तेरे अपनों ने ही,
फरक्का व टिहरी बांध बना डाला।
कल, कल बह्ती सरिता को बंदनी बना डाला।
अब तो यह नज़ारा है
हरिद्वार पर पानी कमर तक,
वाराणसी में द्वीप दिखाया।
तेरी सहायक अस्सी तो लुप्त हुई
वरुणा भी है मिटने को तैयार।
एक दिन ऐसा भी आएगा,
तू भी, मां सरस्वती की तरह
लुप्त हो जाएगी।
फिर तेरे तटवासियों का क्या होगा?
कौन देगा जीवन दान?
कौन करेगा जन मानस का कल्याण?
कौन करेगा जन मानस का कल्याण?
हे! मां तुझे प्रणाम।
मां तुझे प्रणाम।

-- पी. सुधा राव

परदेश

परदेश में, इस नये परिवेश में
भावों को व्यक्त करने का
न शब्द है, न शब्दकोष है।
चहुं ओर नि:शब्द है।
किसी को सुनने का न वक्त है।
सब अपने में व्यस्त हैं
मशीनी ज़िन्दगी से त्रस्त हैं।
यहां न पड़ोसियों का शोर है
न बच्चों की चिल्लपों।
गलियों में खेलते बच्चे नहीं,
साइकलों की घ़ंटियां नहीं,
न स्कूटरों की घर्र घर्र,
गर्द उड़ाती मोटरों की रफ्तार नहीं,
न मोटर साइकलों की आड़ी तिरछी चाल।
चिलबिलाती धूप नहीं,
तपती धरती पर पड़ती वर्षा की फुहार नहीं,
उससे उठती मिट्टी की सोंधी सुगंध नहीं,
शिशिर की रुपहली शाम नहीं,
चौपाल पर बैठे आग तापते हाथ नहीं।
न बेले की खुशबू न चंपा की महक,
नहीं है रजनीगंधा की गमक
न है रातरानी की मदमाती सुगंध।
नहीं है फेरीवालों की पुकार
न है सब्जी ठेलों की गुहार।
चप्पलें चटकाते, चलते आम आदमी की आवाज़ नहीं
कान फाड़ते लाउडिस्पीकर पर बजता संगीत नहीं
मस्जिदों की आज़ान नहीं
मंदिरों की घंटियां व शंखों की गर्जना नहीं
ब्याह, शादियों, बैंड बाजों की धुन नहीं।
हड़तालों, जुलूसों का नारा नहीं,
सांसद में शोर नहीं,
माइक फेंकते लोग नहीं।
मिट्टी के तेल की लम्बी कतार नहीं,
राशन के दुकान जाने की होड़ नहीं,
अस्पताल में मरीज़ों की भीड़ नहीं,
बिलों के भुक्तान की लम्बी लाइन नहीं।
कहीं कोई शोरगुल नहीं।
है, तो बस हर ओर
स्वच्छ, शांत वातावरण
चारों ओर हरियाली, हरा भरा
किंतु सूना है मन।

-- पी. सुधा राव



नियति

पढ़ने की चाह थी मुझमें
किंतु कूड़ा बीनना था भाग्य में।
सुबह सबेरे जाग जाती
ठंड, बारिश, गर्मी से बच न पाती।
पेट की आग तो बुझ न पाती
फिर बस्ता उठाए किधर जाती।
एक हाथ में अपने से छोटे ,
नन्हे शिशु को उठाए
दूसरे मे एक बड़ा सा
पोलिथिन का झोला अटकाए
कूड़े के ढ़ेर से कूड़ा बटोरटी
जैसे कोई खजाना खोजती।
हाथ में न दस्ताने,
मुख पे न कोई मास्क

पैरों  में न कोई चप्पल
गंध का ना कोई भान।
मां बाप का प्यार न जाना
चाह थी सिर्फ दो रोटी पाना।
बचपन क्या होता, कैसे बीता, नहीं पता।
पता है, तो सिर्फ इतना
कूड़े के अम्बार से लगाया रोग जितना
कि, दम फूलता है, सांस की है बीमारी
चर्म रोग से नहीं अछूती
न पूंजी है करने को तीमारदारी।
असंगठित क्षेत्र है हमारा।
न हड़तालें, न यूनियन
किसी को न परवाह हमारी।
रोज़गार न हमारा है गरिमामय
न वेतन, न पेंशन की गारंटी।
दलित, सूचित, अनुसूचित
सिर्फ नाम है
हमारे लिये पर्याय है।
शायद कूड़ा बीनना ही हमारी नियति है।

-- पी. सुधा राव



जीवन
आशा, निराशा,
जीवन, मृत्यु
चलता है ये चक्र।
जीवन का यही यथार्थ
आता वसंत पतझड़ के बाद।
वृक्ष, लताओं में होता जीवन संचार।
नई कोपलें, नव पल्लव
भरते जीवन में उल्लास।
नव वधू सी सजती प्रकृति
किये रंग बिरंगे पुष्पों का श्रिंगार।
फूलों, फलों से अलंकृत डालियां
समेटे नव जीवन अपने गात
देती फिर एक पौधे को जन्म।
हर ऋतु पार कर
फिर आता पतझड़,
फिर आता वसंत।
जीवन का चलता है ये क्रम।
इसी बगिया में था एक वृक्ष खड़ा
लगी किसी की नज़र
बीच में ही सूख गया।
पतझड़ से पहले मुर्झा गया।
ठूंठ बनकर  खड़ा  रह गया।
लगा किसी ने झटके से छीना
जीने का हर क्षण।
लगा पीड़ा से भरा था हर अंग।
छवि लगती मुझ जैसी
खड़ी प्रतीक्षा करती।
कब आंधी आये
उड़ा ले जाए
दूर, दूर, इस धरती से दूर,
उस लोक में, जहां चैन है,
शांति है, सुकून है
नहीं है कुछ और।

-- पी. सुधा राव



पोलीथिन
यह पोलिथिन का राज है
नई सभ्यता का साज है
फैशन की दुनिया है
झोला शान के खिलाफ है।
हर ओर मेरी ही पुकार है।
मौके पे मुझे पाना आसान है
नहीं चलता बिना मेरे कोई काम है।
दाल हो या चांवल,
सब्जी हो या फल,
कपड़ा हो या पुस्तक,
सब देते मुझे दस्तक।
दूध या दही हो,
घी हो या शक्कर
पानी की भी क्या बात
सब आ मुझ में समात।
करता नहीं मै किसी में भेदभाव
धनी हो या गरीब
अफसर हो या चपरासी
वैज्ञानिक हो या राजनीतिज्ञ
अध्यापक हो या विद्यार्थी
गृहणी हो या कामकाजी
ठेलेवाला हो या दुकानदार
सब करते मेरा उपयोग
मेरा राज्य है चहुं ओर।
गरीब की झोपड़ी भी न छूटी
गर्मी, बरसात में है मुझसे ढकी।
मैं सर्वत्र विराजमान हूं।
घरों में, कूड़ों के ढेर में
मोरियों में नालियों में
गलियों व मैदानों में
बगीचों, खलियानो में
वाटिकाओं, सरिताओं में
गाय, भैसों के पेट में
शायद, उनकी दुग्ध धारा में
धरती के कोने, कोने में हूं व्याप्त
हर समय हर किसी के साथ
चुनाव में अगर हौउं खड़ा              
जीतुंगा जरूर,
बाजी होगी मेरे हाथ।
अरे! पर्यावरण के रक्षकों,
चेतो, सुनो
पंगा न लेना मेरे साथ।
कठिन है मिटाना मेरी छाप।
जमा कर जमीन पर जला दिया जो जाउं,
धरती की उर्वरकता को कर दूं नष्ट।
भूमि में गड़ा दिया जो जाउं,
कर दूं उसे भी भ्रष्ट।
राजा, रंक का भेद फिर आ जाएगा
बाबू झोला लेकर चला जाएगा।

-- पी. सुधा राव


घोटाला
घोटाले पे घोटाला
बोफोर्स हो या हवाला
तहलका हो या तेलगी
या हो चारा घोटला
मकान हो या दवाइयां
जमीन हो या जंगल
कोयला हो या शक्कर
छोड़ा नहीं किसी को
चाहे वह हो कंप्यूटर
क्रिकेट को छोड़ने की
मंशा नहीं हमारी
हर ओर घुस पैठ की
हमारी है तैय्यारी।

बात करते क्या आप छानबीन की
कमेटियों पे कमेटियां बिठवाईं
सी. बी. आइ. की भी है सुनवाई
पूछ्ताछ ?
अजी वो चलती सालों साल
कई हो गये इस बीच मालामाल
कुछ तो गये अनंत यात्रा पर
कुछ बैठे अभी भी कुर्सी पकड़ कर
पकड़े गये होंगे कुछ अफसर,
कुछ नौकरशाह
कुछ की कुर्सी अभी भी बरकरार
कुछ  ईमानदार मेहनती
बने गले कि फांस
पिस रहे हैं वो
जैसे गेहूं पिसता घुन के साथ
इस चक्कर से उबरने में
हो गई उन की गोटी साफ।

क्या फरक पड़ता है जनता पर
आज चेती है, कल भूल जाएगी
बीती भुला आगे बढ़ जाएगी
वह महंगाई से पस्त है
रोज़ी रोटी के चक्रव्यूह में व्यस्त है
आरजकता, आतंकवाद से त्रस्त है
घोटाले के लिये सोचने का न वक्त है
अपनी ही दाल घोटने में मस्त है।

-- पी. सुधा राव


आघात
कैसे करूं आराधना तुम्हारी
कैसे करूं अभ्यर्थना,
किससे करूं शिकायत
किसे दूं उलाहना।
दिन रात की थी पूजा
निष्कपट मन से की थी सेवा।
पूरा था विश्वास
तुम्हारा वरद हस्त है सदा साथ
किंतु, एक झटके में
तोड़ा तुमने मेरा विश्वास
देकर एक बड़ा आघात।
क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा ?
क्या कुसूर था मेरा ?
क्या किया था पाप ?
क्यों किया मेरी भक्ति का मज़ाक ?
क्यों किया मेरे जीवन का परिहास ?
तुमने जलते जीवन की लौ बुझा दी।
इस जीवन को जलती चिता बना दी।
वेग से सूनामी की तरह आये
क्षण में सब कुछ साथ ले गये।
क्यों छीनी मेरी खुशी, मेरी हंसी
मेरा सुख, मेरी शांति।
क्यों छीना मेरे जीवन का नूर?
क्यों किया मेरी आस्थाओं को चकनाचूर?
क्यों किया मेरे विश्वास की लौ को भस्म?
क्यों किया मेरे अरमानों, आशाओं को भंग?
जीते जी मेरा जीवन मुझसे अलग किया
इस नैया को माझी से विलग किया
बिन माझी क्या नैय्या चल पाएगी
गमों की आंधी, दुनिया के थपेड़े
क्या झेल पाएगी ?
एकाकीपन, यह निस्सहाय जीवन
क्या जी पाएगी ?
बिखेर दिया सब कुछ एक पल में
क्या वे पल दे पाओगे ?
मेरी भक्ति, मेरा विश्वास लौटा पाओगे ?
यह संभव नहीं, कदापि नहीं
यह आघात मृत्यु पर्यंत सहना होगा।
तुम्हारा यह दंश यह चुभन सहना होगा।

-- पी. सुधा राव





हड़ताल
हड़तालों पर हड़तालें
क्यों पड़ते दुकानों में ताले
कभी सड़क बंद, कभी आटो बंद
रेल बंद, बसें बंद
कालेज बंद या फिर दफ्तर बंद
क्या ये है ये आम आदमी की जंग
या है, जन जीवन सियासत से तंग
हड़तालें हैं किसलिये?
समस्याओं से जूझते मानस के लिये
मह़ंगाई से पिसती जनता के लिये
रोटी, कपड़ा का जुगाड़ करते आम जन के लिये
शिक्षा से वंचित बच्चों के लिये
या फिर पेट की आग बुझाने घरों, दुकानों,
कल कारखानो में काम करते किशोरों के लिये
किसलिये ये हड़तालें ?
क्यों बुझ जाते चूल्हों के अंगारे

यही आम मानस क्या करवाता हड़तालें
या पड़वाता दुकानों में ताले
या चलता उनके कहे पे,
जो निरीह जन की आग पे अपनी रोटी सेंकता
दूसरों के कंधे पर रख अपनी बंदूक चलाता
कुर्सी पाने की होड़ में भागता
सत्ता की लोलुपता में जीता
हर तरफ से धन बटोरता
स्वार्थ के हर मौके को बीनता
राजनीती के पत्ते फेंकता
हड़तालों से जिसे कोई फरक न पड़ता
कौन लाभ मौके का उठाता?
कौन इसकी चक्की में पिसता?

-- पी. सुधा राव




अटकले
मैं हूं चौराहे पर खड़ा
हर तीसरे चौथे चौराहे पर,
पा जाओगे मेरे साथी।
न, न, गलत सोचा आपने
मैं कोई भिखारी नहीं
जो कटोरा थामे,
हर किसी की राह रोके।
मैं लोगों की राह रोकता
उन्हें थोड़ी देर रुकवाता।
अपने सामने खड़ा करता,
उन्हें निर्देष देता।
न, न, फिर गलत सोचा आपने।
मैं कोई नेता नहीं,
वोट मांगने नहीं मैं खड़ा।
मेरा भाषण सुनने न कोई ठहरा
नहीं करता मैं कोई भेद भाव
हिन्दू हो या मुसलमान
सब हैं मेरे लिये समान।
भाषा, जाति या ध्रर्म
पड़ता मुझे ना कोई फर्क।
गरीब हो या अमीर
रुकते मेरे इशारे पर।
मैं तो चौराहे पे खड़ा
सबको रोकता
आपदाओं से बचाता।
लाल, हरी, पीली बत्ती लिये,
दिन रात खड़ा रहता।
रास्ते का अनुशासन सिखाता।
आपने फिर गलत सोचा।
मैं कोई ट्राफिक पोलिस नहीं।
जो आटो, टैक्सी रोके
अपने खाते, खाने की पूर्ती करे।
मै विश्राम तभी करता
होती जब बिजली गुल।
क्या कहा आपने?
बिजली तो दिन भर रहती गोल
विद्युत घर की खोलती पोल।
जी, सही सोचा आपने
घरों ,कारखानो में नहीं आपूर्ती
फिर मैं किस खेत की मूली।
जी सही सोचा आपने
मैं चौराहे की बत्ती हूं।
मैं सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल हूं

-- पी. सुधा राव

नासूर

दिल के इन रिसते नासूरों पर
जब जब मरहम लगाने की कोशिश की
ये रिसते ही रहे, घाव बढ़ते ही रहे।
मन का सुकून जैसे लुप्त हो गया।
ज़िन्दगी का चैन लगा खत्म हो गया
घावों को जब अपने हाल पे छोड़ दिया,
दुनिया के थपेड़ों को सहने को मोड़ दिया,
हर आंधियों का सामना करने की सोची
मूक बन कर नहीं,
सिर्फ दर्द सहकर नहीं,
केवल दूसरों के सुख की नहीं,
उनके भावनाओं की नहीं,
अपने दुःख, दर्द, भावनाओं की भी
कद्र करने की सोची।
उन्हें जतलाने की सोची।
अत्याचार न सहने की सोची,
अन्याय न सहने की कसम खाई
लगा नासूर भर रहा है।

-- पी. सुधा राव





पैगाम
यह विस्फोट,यह अग्नि, यह ज्वाला
हाय! रे आतंकवादी यह क्या कर डाला।
वैसे भी इंसान पल पल मर रहा,
रोज़ी रोटी के चक्कर में चहुं ओर डोल रहा।
काश्मीर की मस्ज़िद व काशी के मन्दिर,
जहां इंसान इबादत करता है,
दो घड़ी के लिये रब से सुकून मांगता है।
तूने ऐसी पाक जमीं को भी न छोड़ा।
बस करो, बस करो यह अग्नि यह ज्वाला।

मिटाना है, तो मिटा दो देश से यह भ्रष्टाचार,
पिस रहा है जिसमें गरीब और सदाचार।
मारना ही है, तो मारो गलत इरादों को,
जो फैलाते आतंकवाद।
करना ही है तो करो मेहनत से काम,
दूर करो गरीबी, दो सबको रोटी, कपड़ा और मकान।
लाना ही है, तो लाओ क्रांति, लगाओ कल कारखाना।
मिटाओ बेरोज़गारी, करे देश उन्नति, देखे जमाना।
बस करो, बस करो
यह विस्फोट यह अग्नि यह ज्वाला।

रहना ही है तो रह, बनाकर भाईचारा।
मिटा दे इस वतन से सब चारा व तेलगी घोटाला।
अरे! विस्फोट कर तू क्या पाएगा?
दर, दर मुंह छुपा भागेगा।
छोड़ दे, छोड़ दे यह सब गलत काम।
बंद कर, बंद कर
यह विस्फोत यह अग्नि, यह ज्वाला।
देना ही है, तो दे
जहां को शांति का पैगाम।
सब करे तुझे सलाम।
सब करे तुझे सलाम।

-- पी. सुधा राव


मैं धन हूं
जल जीवन दिया गंगा बन।
विद्या दान दिया सरस्वती बन।
लक्ष्मी रूप में दिया धन।
जगत कल्याण किया दुर्गा बन।
पूजा भी की गई तो कुछ पाने हेतु,
अन्यथा पड़ी हूं एक वस्तु बन।

आज भी, मैं वह धन ही हूं
कभी छुई, कभी अनछुई
सदैव उपयोग की गई।
कभी बेटी, तो कभी पत्नी बन,
कभी बहू तो कभी मां बन।

बचपन में थी पराया धन।

घर जिसे अपना समझा,
किया संपूर्ण अर्पण।
करती थी पूरे हर कर्तव्य,
रही फिर भी सिर्फ एक गृहणी बन।
प्यार सम्मान से ज्यादा,
रही उपेक्षित बन।

मैं हूं वह धन,
जिसकी जब तक उपयोगिता है,
तब तक सम्मान है।
बाद में कूड़े का ढेर है।
जी का जंजाल है।
युग युग से देती ही तो आई हूं,
हर रूप मैं धन बन।

-- पी. सुधा राव

खोजती हूं

खोजती हूं, बौराई सी
होश खोई पगलाई सी।
खोजती हूं चहुं ओर,
खोजती हूं,
नील गगन में
असंख्य नक्षत्रों में
टिमटिमाते तारों के प्रकाश में
उन्मुक्त उड़ते विहंगों में
वसंत के नव प्रस्फुटित पल्लवों में
वाटिका के रंग बिरंगे कुसमों में
वर्षा की नन्हीं बूंदों में
विद्युत की चपल तरंगों में
बादलों की घोर गर्जना में
इंद्रधनुष के सप्त ऱंगों में
कल कल करती सरिता में
संगीत के सप्त सुरों में
भोर की नव किरणों में
संध्या की ढलती सूर्य रश्मि में
चन्द्रमा के रजत प्रकाश में
निविड़तम अंधकार में
खोजती हूं
हर अणु में ,हर कण में।
थक हार कर पाया
अपने ही हृदय पटल में
स्मृति के हर पल में
अपने ही हर अंश में
पाई तुम्हारी अमिट छाप
अब नहीं कोई संताप।

-- पी. सुधा राव