Monday, November 8, 2010

टूटे पंख
सपनों के अर्वट मे
ढूड़ती हूं
कुछ बीते पल
कुछ बीती बातें
हसीन लम्हें
कुछ यादें
जो भस्म हो कर
कहीं खो गये।

उस नीड़ में
तलाशती हूं
वे पुलकित क्षण,
साथ का अहसास
कमनीय पल,
मनुहार की रातें,
बाहों का सहारा
सांसों की गरमाहट
पदचाप ध्वनि
आज यह
वीरान पड़ा है।
निःशब्द खड़ा है।
धूमिल हो गया है।

पुस्तकों के
उस आलय में
खोजती हूं निश दिन
उन पन्नों पर
दौड़ती आंखें,
वे हाथ, जो उनको
पकड़ते थकते न थे,
वह मस्तिष्क, जो
दिन भर पढ़ते
न होता क्लान्त।

लिपि, जिसको
प्रतीक्षा है
उन उंगलियों की
लिखे जिसने
अनेक पृष्ट,
वे कागज
कोरे हैं, पड़े हैं
धूल धूसरित
बिखरे हुए
मेरे गुलाबी सपनो के
टूटे पंखों की तरह
---पी सुधा राव


नारी तुम गरिमा हो
नारी अपनी गरिमा को पहचानो
अपनी क्षमता को कम न आंको।
तुम दया, त्याग की मूर्ती हो,
शक्ति का स्तोत्र हो,
सहिष्णुता का अवतार हो ,
शर्मो, हया की खान हो,
ममता का भंडार हो,
संस्कारों की रक्षक हो,
शिशु की पहली शिक्षक हो,
परिवार की नींव हो,
समाज की शिलाधार हो।
भूलना न कभी इन गुणों को
किंतु, अन्याय सहकर नहीं,
अत्याचार झेलकर नहीं,
उत्पीड़न पाकर नहीं।
आवश्यकता पड़ने पर
चंडी का रूप धर लो।
जुल्मों के खिलाफ लड़ लो।
पापों का विनाश कर दो।
तुममें दुर्गा की शक्ति है।
लक्ष्मी, सरस्वती का संगम है।
अपने साहस से आगे बढ़ना है।
बलबूते पर अपने खड़े होना है।
तुम क्रीड़ा की वस्त्तु नहीं,
प्रदर्शन-मंजूषा में रखी चीज़ नहीं,
विलास की सामग्री नहीं,
किसी की धरोहर नहीं,
दया, भिक्षा की पात्र नहीं,
तुम्हारा अपना अस्तित्व है।
तुम्हारी अपनी पहचान है।
क्षेत्र चाहे शिक्षा का हो
या फिर हो राजनीति का,
प्रोद्योगिकी, वाणिज्य, कला,
विज्ञान, वकालत या अन्य का
तुम्हे श्रम से अग्रणी होना है।
तुम जननी, पत्नी, भगनी, पुत्री
सर्व रूप में पथ प्रदर्शक हो।
कंधे पे टिका है देश तुम्हारे
उत्थान तुम्हारे हाथों है।
नारी तुम देश की गरिमा हो
प्रशस्ति पथ पर चले चलो
---पी सुधा राव

चित्रण
वाह! रे चित्रकार तूने क्या नाम कमाया
नारी की सौन्दर्यता से लेकर हर विषय अपनाया।
इतनी लक्ष्मी व कीर्ती पाकर, क्या तेरा पेट नहीं भर पाया?
मां भारती को निर्वस्त्र कर तुझने क्या पाया?
मां सरस्वती की देन से ही तेरे हाथों यह कला आई।
मां लक्ष्मी की कृपा से ही हुई तेरे खज़ाने की भराई।
अरे! तू यह भी भूल गया कि मां, मां होती है,
वह कोई हिंदू, मुसलमान, सिक्ख,या इसाई नहीं होती है।
मां, भारती तो जननी की भी जननी है।
यह वसुन्धरा तो करोड़ों की पोषक है।
इस धरती पर जन्मे अनेकों इस के रक्षक हैं।
यह मां हम सब भारतीयों की शान है।
जिसकी गरिमा बचाने हेतु हजारों सिपाही कुर्बान हैं।
इसकी शस्य श्यामला भूमि पर खेलकर तू बड़ा हुआ
पढ़ा लिखा और इस योग्य हुआ।
अरे! उसी मां भारती को तूने निर्वस्त्र किया
धिक्कार है, धिक्कार है।
--पी सुधा राव
आज का रावण
युग युग से पढ़ते आये हैं रामायण
अधूरी है गाथा वह बिन रावण
उस युग में रावण था सिर्फ एक
आज डगर, डगर पर खड़े रावण अनेक
वह रावण दैत्य के रूप में नर था
आज का रावण नर के रूप में है दैत्य
राजा रावण था वेद वेदांतों का ज्ञाता
वीणा, आयुर्वेद, राजनीति का पंडित
आज का रावण है अज्ञान से सुशोभित
पढ़ाई के नाम पर बटोरता है सिर्फ डिग्रियां
ज्ञान के नाम पर विद्या की उड़ा दी धज्जियां

आज का रावण अपनाता है सिर्फ राज
नीति का यहां राजनीति में न कोई काज
हर हथकंडे उपयोग कर चाहता है पाना सत्ता
पद पर रह, विरोधियों का करता साफ पत्ता
उस रावण ने लक्षमण को मृत्यु शैय्या के पास
दिया राजनीति का पहला गुरु मंत्र व पाठ
पाने के लिये पड़ता है रहना चरणों के पास
आज का रावण चाहता है पाना शिक्षा
गर्व से, कर धन, बंदूक व लाठी का प्रहार
घिरा हुआ है वह चमचों और चाटुकारों से
तलुवे सहलवा, अंगूठा दिखा निकल जाता साफ

भगिनी की कटी नाक के प्रतिशोध में
जो कर न पाया था वैदेही से वरण
उस रावण ने छल से किया सीता हरण
हर कर भी जानकी को उसने न था छुआ
मर्यादा पूर्वक अशोक वाटिका में था रखा
आज के रावण की अमर्यादा की सीमा नहीं
प्रति दिन कहीं न कहीं होता है सीता हरण
बलात्कार कर मौत की भी देता है यंत्रणा
धन सत्ता के बल पर वह घूमता निर्दोष बना

वह रावण था शिव भक्त, शूर वीर और साहसी
उसने अपने लंका राज्य को बचाने खातिर
उठा लिये आयुध और किया युद्ध बन वीर
बचाने अपनी प्रजा व राज्य को, दे दी सर्वस्व बलि
आज का रावण जुटा है अपने ही लोगों को लड़ाने
भाषा, जाति, धर्म, प्रदेश के नाम पे सब कुछ मिटाने
चूकता नहीं वोट के नाम पर गरीब की लुटिया डुबाने
वह अपने ही देश वासियों को लूट खसोट रहा है
अपनी लोलुपता के आगे मदान्ध हो जी रहा है

उस दशानन के थे दस शीश ज्ञान के वे थे प्रतीक
छः उपनिषद के, व चार थे चार वेदों के प्रतिरूप
आज के रावण का है सिर्फ एक शीश, दस शीश समान
परिपूर्ण है जो काम, क्रोध, मद, लोभ रूपी वेद से
स्वार्थ, दंभ, छल, धूर्तता, ईर्ष्या अन्याय रूपी उपनिषद से
उस रावण की तरह ही महत्वाकांक्षी है यह रावण भी
फर्क सिर्फ इतना है वह दूसरों पे अन्याय था करता
और आज का रावण अपनों को भी लूटने से न चूकता

उस रावण का पुतला जला विजयदशमी हम मनाते
असत्य पे सत्य की विजय का पताका हम फहराते
आज के रावण के पाप को है जड़ से उखाड़ना
पापी पर विजय पा, प्रयत्न कर स्वच्छ समाज है बनाना
इस रावण को पराजित करने के लिये आवश्यक है
जन्म लेने की, एक नहीं अनेकों रामों की
अनिवार्य है इस पापी के पापों के उन्मूलन की
सही अर्थों में होगी जय, विजयदशमी मनाने की

----- पी. सुधा राव















दंश
मेरे हरे भरे उपवन में
उल्लसित पूर्ण प्रकृति में
किसने यह दंश चुभो दिया
अकस्मात यह हरियाली
मरुस्थल बन गयी

आनंद परिवर्तित हुआ पीड़ा में
हृदय में वेदना का तूफान उठा
जब जब उसे सुलाने का प्रयत्न किया
फन उठा कर भुजंग की तरह खड़ा हुआ
व्यथा की वृहत उत्पीड़ना हुई
विष की तरह जीवन में व्याप्त गई।

हर तरह से दूर ढकेलने की चेष्टा की
जलधि की लहरों सी वापस आ खड़ी हुई
डूबते जहाज की भांति ही
हृदयसिंधु तल में समा गई।

पीड़ा को समेटने की कोशिश की
तो उफनती गंगा सी विस्तृत हुई
बाढ़ का प्रकोप दिखलाती
अंग प्रत्यंग को लील गई।

जब इसे भुलाने का प्रयत्न किया
दुग्ध शर्करा की तरह,
जीवन में घुल गई
कैसी है ये दंश वेदना
सर्वस्व मेरा निगल गई।
-----पी. सुधा राव










एकीकार हो जाऊं
खोई हुई खुशियों को
कहां ढूड़ू. कैसे पाऊं
इस उजड़े चमन को
कैसे बटोरूं, कैसे सहेजूं
नीरस हो गयी ज़िंदगी को
किस रस से सिंचित करूं
तप्त हृदय की दग्धता को
किस नीर से शीतल करूं
निश दिन क्रंदित मन को
कौन सी थपकी से सुलाऊं
इस तड़पते दिल को
कैसे संतावना दूं
वेदना के अगाध सागर में
डूबती नौका को कैसे बचाऊं
खो गये अस्तित्व को
कहां से ढ़ूड़ लाऊं
इस बुझे हुए अंतर्मन को
किस लौ से आलोकित करूं
अनेकों दैत्य हैं मुंह बाये खड़े
इनकी सुलगती अंगारों से कैसे बचूं
इस निराशा भरे जीवन को
किस आशा की ज्योत से जलाऊं
इस वीरान ज़िन्दगी में
कैसे मैं बहार लाऊं
अब तो बची है सिर्फ एक कामना
मिलूं तुमसे और एकीकार हो जाऊं
----- पी सुधा राव












फुटबाल की व्यथा
जी, हां मैं एक फुटबाल हूं
पर मेरी कोई हस्ती नहीं
गति है सरकारी फाइल जैसी
फरक है सिर्फ इतना
वह होती हस्तान्तरित
और मैं पदान्तरित
एक ने लात मारी
दूसरा चूकता नहीं
जूते की ठोकर मारता
उछालता तीसरे की ओर
चाहते तो सब हैं
पास आऊं मैं उनके
सिर्फ इसलिये कि
पा सकूं मैं लक्ष्य उनका
नहीं बैठाना चाहते
सिर माथे मुझे
किसी तरह छू भी लूं
अगर माथा किसी का
तुऱंत फेंक दिया गया
किसी और के
जूते की ठोकर के लिये
पहुंच भी गया अगर
'गोल' में किसी तरह
वापस भेजा 'गोली' ने
सहने पद प्रहार को
पा जाऊं यदि लक्ष्य
अपने 'गोल' को
वाहवाही होती है
' किक्' मारनेवाले की
मैं तो सिर्फ एक फुटबाल हूं
उस गरीब की तरह
पड़ा हूं सहने सिर्फ प्रहार को
चोट खाकर भी देता हूं
वाह वाही, धन दौलत दूसरों को।
-----पी. सुधा राव


धर्म एक कर्म
धर्म एक आस्था है
यह एक विश्वास है
मन की भावना है
हृदय की भक्ति है
जीने की एक शक्ति है
अंतःकरण की पुकार है
यह श्रद्धा उसके प्रति है
जो अंतर्यामी, सर्वव्यापी है
कण, कण में विद्यमान है
हम सब में उपस्थित है
अनेकों रूप में प्रस्तुत है
जिस रूप में चाहे उस रूप में
लोग उसे भजते हैं,
उसे आज़ान देते हैं
उसे पुकारते हैं
कभी अपने स्वार्थ के लिये
कभी अपनों के लिये
फिर क्यों है ये भेदभाव
धर्म के नाम पे टकराव
जब उसकी सत्ता है एक
फिर क्यों मतभेद अनेक
भूल गये इस धर्म से
परे एक धर्म और है
जो श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है
और वह 'मानव धर्म' है
जो प्रेम का प्रतीक है
दया की अविरल धारा है
परमार्थ का भंडार है
सहिष्णुता से अभिभूत है
दूसरों के प्रति संवेदनशील है
आपत्ति का रक्षक है
स्वार्थ से परे है
सेवा ही जिसका ध्येय है
एक दूजे का सहायक है
हर पल, हर क्षण
हर गम, हर सुख में
साथ होने का वचन है
यह सब धर्मों का सार है
हर धर्म बिना इसके निस्सार है
क्यों न इसे हम अपना लें
विश्व के कोने, कोने में फैला दें
------पी. सुधा राव

















कर्ज़
कैसे करूं मैं कर्ज़ अदा उनका
मुश्किल में जो साथ थे मेरे
सुख में जो मेरे इर्द गिर्द थे
दुःख की घड़ी में वे भाग खड़े
औपचारिकता निभाने आये थे
निभाकर शीघ्र वे चलते बने
उम्र गुज़र गई पहचानने में
इन इन्सानों के मकसद को।
ऊपर से दिखते ये देव
अंदर से हैं सब दानव

कैसे धन्यवाद करूं मैं उनका
भावुकता से कंठ अवरुद्ध हुआ
कैसे चुकाऊं मैं ऋण उनका
अत्यादिक दुःखित समय में
खड़े हैं जो हाथ थामे मेरे
अत्यंत आभारी हूं मैं उनकी
कष्ट में जो बन गये अज़ीज़ मेरे
श्रद्धा सुमन अर्पित है उनको
संताप के कठिन काल में
बन गये जो मेरे अपने।
---पी. सुधा राव


















आदमी झुलस रहा
क्यों होता है आदमी ऐसा
चंद सिक्कों पे वो है बिकता
ईमान से क्या धरा शून्य हुई
विलासिता के आगे क्या झुक गई
दौड़ रहा है हर आदमी
क्या कुछ पाना है लाज़मी
निन्यानबे के फेर में वो है पड़ा
भेद न कर पा रहा बीच भला बुरा
सुख शांति उसी में खोज रहा।
धन, वैभव, विलासिता, ऐश्वर्य सब
बन गये जीवन के मूल आधार
भूल गया क्षमा, वेदना, सेवा निस्वार्थ
हर पग पे ढूड़ता है सिर्फ स्वार्थ
गागर में सागर डुबाने की सोच रहा
इस भाग दौड़ में न जाने
उसका क्या, क्या छूट रहा
छोटी छोटी खुशियां न देख रहा
मृगमरीचिका सी खुशियों के
पीछे पागल सा भाग रहा
खुशियों को बांटना भूल गया
गम के सागर में कूद रहा
आकाक्षाओं की मंजिल पाने
में ही आदमी है झुलस रहा।
---पी. सुधा राव
















मैं कवि बन गयी
लगता है मैं भी उड़ जाऊं
कल्पना लोक में पहुंच जाऊं
कुछ कविताएं लिख पाऊं
बहुतेरे लिख रहे हैं
मैं, उनमें से एक हो जाऊं
सोचा मुश्किल क्या है काम
चुटकी बजाते हो जाएगा नाम
यह कोई आलेख नहीं
पन्ने रंगने ने का काम नहीं
चंद शब्दों में भाव व्यक्त है करना
छंद मुक्त ही तो है लिखना
मात्रा, दोहा, वर्णो का क्या काम
भाषाओं की खिचड़ी पका
हंसी, प्रेम का तड़का डाल
परोसना है एक पन्ने पर
शीघ्र एक रीम कागज मंगा
चार छः कलम साथ रख
बैठी मैं कविता लिखने
दिन में पांच छः न सही
लिख लूंगी दो चार ही
सोचा था जो है अति सुगम
बन गया वह अति दुर्गम
घंटों बैठे रहने पर भी
कागज़ रह गया कोरा
कलम रह गया अचल
शब्द रहे आपस में उलझ
विचारों में न थी कोई सुलझ
न भावों का सैलाब उमड़ा
न अभिव्यक्ति की क्षमता
मन ने व्यंग से पुकारा
पूछा. क्या बन गई कवि?
कागजों के पुलिन्दों का
अब क्या कूड़े में है धरना?
इस व्यंग का हुआ यूं असर
श्री गणेश की मूर्ती सामने रख
माता सरस्वती की वंदना कर
लिखना मैने प्रारम्भ किया
पन्ने पर पन्ने रंगने लगे
फिर सिमट कर तुड़े मुड़े
गोल लड्डू जैसे बन गये
कमरा बना कूड़े का ढेर
लगा, द्रौपदी जैसे बैठी हो
मध्य चीर अम्बार के
हिम्मत न हारी फिर भी मैने
कवि बनने की कविता लिख डाली।
---पी. सुधा राव

Tuesday, August 3, 2010


  मन
मन में
उठता है तूफान
विचारों का,
स्मृतियों का,
बुने हुए सपनों का
जो अधूरे रह गये
अधर में खो गये।
भावों का,
विचारों का,
मंथन हो रहा
किंतु नवनीत सा
पिघल कर
छाछ में खो रहा।
अव्यक्त वेदना,
खो देने का संताप
हृदय में धधक रहा
ज्वालामुखी की तरह
फटने को तत्पर
लावा की तरह
बहने को मचल रहा।

--पी. सुधा राव

संग हो
चले तो गये तुम
पर क्या दूर जा सकते हो मुझसे?
उन सपनो को जो मैने बुना
उनसे उलझ गये हो।
स्मृतियों के ताने बानों से
लिपट गये हो।
विचारों के धागे से
बंध गये हो।
मेरे मन की बेचैनी से
घिर गये हो।
ध्यानों में मेरे
रम गये हो।
हृदय पटल पर छवि बनकर
लटक गये हो।
मेरे रोम रोम में
बस गये हो।
जीवन के हर रंग से
रच गये हो।
मन के हर कोने में
समा गये हो।
दूर जाकर भी,
प्रति पल मेरे संग हो।

--पी. सुधा राव

      आरक्षण

आरक्षण का जमाना है
अपनी सीटें आरक्षित कर लो
सीटें फिर चाहे संसद की हों,
स्कूल, कालेज या नौकरी की हों।
तरक्की कर अगर कुछ पाना है
एक बार कर लो आरक्षण
पीढ़ी दर पीढ़ी हो रक्षण।
एक पीढ़ी को करना काम
बाकी के हैं सब आराम।
स्पर्धा की दौड़ में
पीछे रह गये तो क्या
विजय श्री का साथ है
आरक्षण जो हमारे हाथ है।
भेद भाव नहीं करता आरक्षण
धनी, निर्धन में दिखाता समानता
गुण योग्यता की नहीं आवश्यकता।
वह देखता है सिर्फ जन्मकृत वर्गों को
मतों को, संप्रदायों को और हां नारी को।
उन पददलितों की कौन पूछता
जो पहले से ही कुचले हुए हैं,
पिछड़े हुए हैं,
समाज से कटे हुए हैं,
अधुनिकता की कौन पूछे,
दिन की दो रोटी भी प्राप्त नहीं है।
आरक्षण अगर उन्हे ऊपर उठा सके
विमान के "टेक आफ" की स्थिति में ला सकें
समाज में सबके साथ खड़ा कर सके
स्पर्धा की होड़ में जीत हासिल करा सके
आरक्षण की फिर जरूरत कहां
देश का उत्थान हो वहां
एक समां बंध जाय वहां।
----पी. सुधा राव


      एक और आरक्षण

महीनो पहले आरक्षण करवाया मैने
हवाई जहाज से जाने का
प्रस्थान का जब समय आया
पता चला हड़ताल है
कर्मचारी सब नाराज़ हैं।
सेवा कब शुरू हो अज्ञात है।

रेल से यात्रा करने की सोची
आरक्षण करवाया महिने पहले
समय पर पता चला रेल दुर्घटना हुई।
उस लाइन की रेलें सब रद्द हुईं।

बस से आरक्षण करवाया
बैठ बस में मुस्काई किस्मत पर
चलो इस बार हुई यात्रा सफल
बे रोक टोक चली बस निकलकर
कुछ दूर जाने पर ज्ञात हुआ,
रास्ता रोको आन्दोलन शुरू हुआ
वाहनों के आगे जाने का कोई योग नहीं
वापस जाना ही सुरक्षित है।

बिना आरक्षण बैठ गये
भाड़े की गाड़ी से
गन्तव्य पहुंच गये
एक लम्बी सांस ली
कान पकड़े आरक्षण के नाम पर।

--पी. सुधा राव


 ओंठ सी लिये है मैने

अन्याय देखती हूं
सुन सकती हूं
किंतु परिणाम?
भुगतने की ताकत नहीं
कुछ कह नहीं सकती
क्योंकि ओंठ सी लिये हैं मैने।
कत्ले आम की कहानियां
यौन शोषण की दास्तानें
आतंकवादियों के कारनामें
अर्ध नग्न तस्वीरें
सब प्रतिदिन देखती टी.वी. पर
नन्हे मुन्नो को, किशोरों को,
कोमल कुसुमांगी नन्हीं बालाओं को
आंख गड़ाये टी.वी. के सामने बैठे
उन सब दृश्यों को देखते
देखा है मैने।
सोचती हूं,--
सोचती हूं, उनके बाल मन पर
पड़ता है क्या असर
क्या वे यह सब दृश्य देखकर
बन जाएंगे  भावनाहीन,
हो जाएंगे इन सब के आदि?
या यह सब कर गुजरने की
मन में उनके भी इच्छा जागी।
किंतु कुछ कह नहीं सकती
क्योंकि ओंठ सी लिये हैं मैने।
उन युवकों को भी देखती हूं जो,
मेहनत ईमानदारी जैसे
शब्दों का अर्थ खोते जा रहे।
पढ़ लिखकर चक्कर में
रोज़गार के भटक रहे।
रात रात भर जागकर
टी.वी. सिनेमा देख रहे।
देख रहे हैं किस तरह
बनते हैं ज़ीरो से हीरो
खलनायक से नेता
रातों रात बन जाते गरीब से अमीर
दौलत से खेलना,
ऊंची अट्टालिकाओं में रहना
सब शान की बात है।
डाका, चोरी, कत्ल सब आम बात है।
सोचती हूं उन युवकों की।
सोचती हूं,
क्या दशा होगी उनके मन की
यही सब कर हीरो बनने की
तमन्ना जागती होगी?
अभिनेता न सही नेता बनने की
उमंगें मन में थिरकती होंगी
कुछ कह नहीं सकती
क्योंकि ओंठ सी लिये हैं मैने।

चित्र पटल जिसे कहते सिनेमा या ‍टी.वी.
सामने बैठी मध्यम वर्गीय बहू बेटी
देखती उसके हर चैनल
उन धारावाहिक पात्रों की तरह
बुनती अपने भी सपने
दिन रात वह भी सज़ी रहे
गहनों, कीमती कपड़ों से लदी रहे।
उन कथानक पात्रों के जैसे
क्या सिर्फ अपना मतलब साधने की सोचती?
या अपना स्वार्थ पाने के लिये
अपनों के विरुद्ध साजिश रचने की
रूप रेखा बनाती।
बन जाती या फिर इतनी महान
सब कुछ त्याग करती अपना बलिदान
जो सामान्य मानस का नहीं काम।
पता नहीं वे क्या क्या गुनती।
मैं कुछ कह नहीं सकती
क्योंकि  ओंठ  सी लिये हैं मैने।
----पी सुधा राव


 खोया बचपन

गलियों के बच्चे
मज़दूरी करते बच्चे,
ज़िल्द चढ़ाते
चाय पिलाते,
ठेला चलाते,
काम करते बच्चे
कविताओं में पढ़ा
श्री चक्रधर जी के।
मन में आया विचार
बच्चे तो वे भी हैं
समाज से जो जुड़े हुए हैं
किंतु बोझों तले दबे हुए हैं
उच्च आकांक्षाओं के,
माता-पिता के अरमानों के,
ऊंची उड़ान भरने के।
शिक्षा के नाम पर
ढोते वो स्कूली बस्ता।
थके हारे जब पहुंचे घर पर
बने जनक-जननी की
अभिलाषाओं के मूरत।
संझा को भी न मिली छुट्टी
पिला दी गई ट्यूशन की घुट्टी।
स्कूलों में खेलने के मैदान नहीं
घरों में खेलना आसान नहीं।
कुछ बच्चे हैं इस प्रकार
नाट्य कला के वे कलाकार।
टी.वी., सिनेमा में छा जाते
मात-पिता के सपने ढोते
बचपना अपना खोते जाते।
बच्चे कुछ हैं संगीत कला में निपुण
जन्मदाता हैं उनके सजग
उजागर करने को उनके गुण।
रात दिन करवाते मेहनत
जीतने को टी.वी. का पदक।
पता नहीं ये
प्रतियोगिता की दौड़ है
या दौर नाम अर्जित करने का?
या फिर साधन धन उपार्जन का?
सच तो यह है
जाने अनजाने ही
बचपन इनका भी छिन गया
छुटपन में ही
बड़े होने का भ्रम छा गया।
खो गया बचपन इनका
खो गया, सुभद्रा जी का
''बचपन का अतुलित आऩंद"
और "वह फिरना निर्भय स्वच्छंद"
 ----पी सुधा राव


अश्रु तुम्हे बहने न दूंगी

अश्रु तुम्हे बहने नहीं दूंगी
तुम ह्रदय का संताप हो
पीड़ा का एहसास हो
भावनाओं का सैलाब हो
अन्तर्मन की व्यथा हो
जीवन की छुपी गाथा हो
मन के उद्गार हो
नयनो की झील हो
शरमो हया के बांध हो
बहने नहीं दूंगी
टूटने न दूंगी
बांध जो ये टूट गया
बह जाएंगे सब इस प्रवाह में
सूख जाएगा नयनो का ताल
और बहते हुए ये अश्रु
खोल देंगे ज़ख्मों का राज
कह जाएंगे मन का हाल
बच जाएगा सिर्फ चक्षुओं का अंजन
काजल की इस कोठरी से
घुट जाएगा दम
बह गये ये अश्रु अगर
मन बन जाएगा बंजर
दिल हो जाएगा रेगिस्थान
मर जाए अगर आंखों का पानी
बचेगा फिर क्या?
बहने देना है नादानी
अतः अश्रु तुम्हे बहने न दूंगी
 ---पी सुधा राव


     पूजते है क्यों
 
जल, थल, नभ के कुछ अधिकारियों ने,
प्रश्न किया देश के जन मानस से
क्यों पूजते हैं लोग अभिनेताओं को?
दौड़ते हैं क्यों क्रिकेटरों के पीछे?
बनना चाहते हैं क्यों वे नेता?
भूल गये क्यों उन वीरों को
किया जिन्होंने सब कुछ अर्पण?
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
रेगिस्थान की मरु भूमि पे,
अरुणाचल की तराइयों में,
आसाम के घने जंगलों मे,
हिंदमहासागर की उच्च तरंगों पे,
अरब, बंग खाड़ी की तूफानी रातों में,
काश्मीर की बर्फीली वादियों में,
शीत की ठिठुरती यामिनी में,
ग्रीष्म की झुलसती बाहों में,
वर्षा की प्रचंड धारा में,
हर दुश्मनों के सामने,
देश की सुरक्षा हेतु डटे रहे,
और रिपु से लोहा लेते रहे।
न मां बहन की सुध थी,
न पत्नी बच्चों का ध्यान,
न स्वार्थ की भावना थी.
न झोली भरने का ज्ञान।
याद था सिर्फ देश
और ख्यालों में देशवासी।
बहुत सोचा पर समझ न आया
पूजते हैं लोग क्यों
सिर्फ नेता, अभिनेताओं, क्रिकेटरों को
खिलाड़ी तो और भी हैं
रंगमंच के पीछे बहुतेरे हैं
सफलता के पीछे कार्यदर्शी औ सचिव हैं
वैज्ञानिक और अध्यापक हैं
शिल्पी और लेखक हैं
फिर यही क्यों सबके आदर्श हैं
बहुत विचारा तब लगा
कदाचित इसलिये कि
दूसरे कितने भी हों महान
वे पूजे न पूछे जाते हैं क्योंकि--
प्रतिदिन वे मीडिया पे दिखते नहीं
अख़बारों में छपते नहीं,
विज्ञापनों में लटकते नहीं,
खुशहाली के सपने दिखा,
जाल भाषणों का फैलाते नहीं।
पुतले बनाकर जलाए जाते नहीं।
नैनों के तीर चला,
अंगों का प्रदर्शन कर,
हाथ से बल्ला घुमा,
कुछ पल मनोरंजन कर,
सस्ते में छा जाते नहीं।
वे न अपनी झोली भरते हैं
न अपना स्वार्थ संवारते हैं।
पूजे जाते हैं वे लोग
आदर्श कहलाते हैं वे,
जो न देश के नाम होते शहीद,
न करते तन, मन, धन कुर्बान
फिर भी वे देश के रत्न कहलाते हैं
फिर भी वे पूजे जाते हैं।
पता नहीं क्यों?
 --- पी. सुधा राव



पंछी
खेत की हरियाली मध्य,
उस पगडंडी पर
चुगती थी चिड़िया दाना।
उड़ती थी पर फैलाये
नीले अम्बर तले।
मैं भी उड़ चली
कल्पना के पंख फैलाये।
कितना सुन्दर है ये जीवन
स्वतंत्र, स्वच्छ, उन्मुक्त
समेटने की कामना नहीं
छल कपट द्वेष नहीं
कोई आडम्बर नहीं
अतीत का दर्द नहीं
भविष्य की चिंता नहीं
दो चार दाने चुगना
नभ में विहरना
किसी वृक्ष की घनी छांव तले
रैन बसेरा करना
शायद एक सुखद सपना।
 --पी. सुधा राव




प्रवासी
 बढ़ती जनसंख्या,
 बढ़ती मुद्रास्फीति,
 घटते उद्यम,
 क्षीण साधन,
 परिवार सीमित हो गये हैं।
 ह्रदय संकुचित हो गये हैं।
 मशीनीकरण के युग में
 खुद भी मशीन बन गये हैं।
 भटक रहे हैं देश विदेश में
 जड़, जमीन अपनी छोड़ कर
 परदेस को अपना बनाया
 प्रवासी हो गये हैं।
 उनके हो न सके वे
 न अपनाए गए उनसे
 वापस अपनो के बीच आकर भी
 बेगाने हो गये हैं।
 आंखों से दूर होकर
 दिल से दूर हो गये हैं।
 दूर के ढोल लगते सुहावने थे
 पास आकर सच जान गये हैं
 अब अपने ही देस में
 विदेसी हो गये हैं।
 अपनो के पास आकर भी
 प्रवासी ही रह गये हैं।

----पी सुधा राव

     प्रतीक्षा
 जर्जर काया,
 कृशकाय वदन,
 मंद ज्योती,
 क्षीण श्रवण,
 धंसी आंखें,
 पिचके गाल,
 बल हीन हस्त,
 जोड़ों का दर्द,
 शरीर पस्त,
 मासपेशियां बस मे नहीं,
 उठ बैठने की ताकत नहीं,
 दिन को चैन नहीं.
 रातों को नींद नहीं,
 तन्हा हैं,
 दो चार बातें करने को
 आतुर हैं।
 पड़े हैं,
 एक वस्तु की तरह
 जिसकी
 कोई उपयोगिता नहीं।
 ढूड़ते है वो सहारा
 शायद अपनों का,
 पर अपने भी
 उनके पराये हैं।
 प्रतीक्षारत हैं वे
 उसकी
 जो बिन बुलाए आ जाती
 बुलाने पे पास न फटकती
 जीवन के अंतिम क्षणों में
 क्या भोगना यही बाकी है?
 अंतिम पड़ाव पर उनके
 हम दर्द क्या कुछ कम
 कर सकते नहीं?
 कुछ नहीं तो,
 चार बातें सही
 सुन लें, कह लें, बांट लें
 हो जाएं उनके
 कुछ पल हसीन।
 बचे हुए कुछ दिन,
 हल्के हो जाएं
 कट जाएं
 बिना गम।

---पी सुधा राव



अनुराग वृष्टि
बहने दो अन्तर की ज्वाला को।
बहने दो इस लावा को।
फूटने दो इस ज्वालामुखी को।
इस अनल में धधक उठे,
भस्म हो जाए
हर नफरत के बीज।
नष्ट हो जाए क्रोध का ताप।
स्वाहा हो जाए मन का लोभ।
राख हो जाए स्वार्थ की होड़।
मिट जाए भेद भाव।
आहूति दे इस अग्नि शिखा में
वासना की, भ्रष्टाचार की।
जब इस शुचि पावक में
होगा सब जल कर खाक
मन होगा तब पाक साफ।
होगी वृष्टि स्नेह की।
हृदय बनेगा शांतिस्थल
बन्धुत्व होगा उपवन,
नयी कोपलें फूटेंगी प्रेम की,
कलियां खिलेंगी प्रीति की,
पुष्प विकसित होंगे अनुराग के।
---पी सुधा राव




 गंतव्य
रास्ते हैं अनेक
गंतव्य सिर्फ एक।
रब हो या राम
नानक हो या ईसा
अन्तर क्या है?
फ़र्क क्यों पड़ता है।
पहचान है एक
रूप हैं अनेक
फिर क्यों हम झगड़ते हैं।
धर्म के नाम पे लड़ते हैं?
लहू का रंग एक है
अल्लाह ईश्वर एक है।
अपनों से मिलने का सुख
प्रियजनों से बिछुड़ने का दुःख
हर गम, हर खुशी एक समान
फिर क्यों हम झगड़ते हैं
धर्म के नाम पर लड़ते हैं?
कर्मों से ज़न्नत को पाना
या फिर नर्क भुगतना
जन्म लेकर पृथ्वी पर आना
मृत्यु पा उसकी गोद समाना
सब कुछ है एक समान
फिर क्यों हम झगड़ते हैं
धर्म के नाम पर लड़ते हैं?
बने हम एक दूजे के कद्रदान
खींचे न कभी एक दूसरे की टांग।
मानवता की क्यों न करें गुहार?
कर अपना तन मन न्योछार
करें क्यों न ऐसा व्यवहार
मिट जाए आपसी मन मुटाव
हर ओर हो भाईचारे का प्रभाव
करें मनुष्यत्व का विकास
फिर क्यों हम झगड़े?
धर्म के नाम पर क्यों लड़ें?
गंतव्य एक सब साथ चलें।
       ---पी सुधा राव

तन्हाई
खाली प्याली
रीता मन
अतीत कुरेदती यादें
अव्यक्त पीड़ा
एकांत क्षण
उनींदी रातें
भटकता मन
खाली दिन
व्याकुल हृदय
तन्हा जीवन
दौड़ रही हूं
मृग मरीचिका के पीछे
कदाचित पाने तुम्हें
जानती हूं
अप्राप्य हो
सब मिथ्या है
भ्रम है
मायाजाल है
फंसी हूं भवचक्र में
प्रतीक्षा है
सिर्फ लक्ष्य की
तुम्हें पाने की
मिलने की
उस लोक में।
--पी. सुधा राव



शिखर छूना चाहती हूं

मैं शिखर पर चढ़ना चाहती हूं।
गिरि शृंग को छूना चाहती हूं।
उंचाइयों को उसकी पाना चाहती हूं।
पर पास आकर उसके बौनी बनी हूं।
उस शिखर तक पहुंचने के लिये
पड़ता है जोर लगाना
एड़ी चोटी, गोटी का
फेंकना पड़ता है पासा मोटा सा।
मुझमें वह दम खम नहीं
बैठी हूं इसलिये उसकी तलहटी पे।
चढ़ गये पर कुछ दूसरों के आसरे,
कुछ को सहारा मिला भाई भतीजावाद का,
कुछ चढ़े अंटी की गोटी फेंककर,
कुछ दूसरों के हाथ की कठपुतली बन चढ़े
पर गिरते हैं ऐसे लोग सब फिसलकर
खींची जैसे ही किसी ने डोरी तानकर।
केवल कुछ को ही देखा है
चढ़ गये जो अपने ही प्रयत्न से।
घात लगाए बैठे कुछ
गिराने उनको यत्न से।
फिर भी कुछ गिने चुने ठहर सके
जो चढ़े अपने बल बूते पे
चढ़ पाए अपने ज्ञान, गुण, परिश्रम से।
मैं पगली डरती थी कठनाइयों से
पादगिरि के ही बैठी रही।
  ---पी. सुधा राव

ढ़ूड़ रही एक आभा रेखा

दिन मास में बदल गये
बदली न नियति की धारा
उमड़ रहीं हैं वेदनाएं
घुमड़ रहीं हैं व्यथाएं।

अंतर्मन में निहित क्लेश
शूल बन कर चुभो रहा
एक घुटन सी छा गई
मन अशांत कर गई।

शब्द खो गये हैं
भाव अव्यक्त हो गये हैं
अस्तित्व मिट गया है
आशाएं अंत हो गयीं हैं।

खो गया हृदयोल्लास
छिटक गईं खुशियां
इस तम में भटक गया
मन का विश्वास।

रुक गया हृदय स्पन्दन
शेष रह गया निष्प्रभ मन
बचा है केवल क्लांत तन
रीता हो गया यह जीवन।

ढ़ूड़ रही हूं इस तिमिर में
फिर भी एक रश्मि किरण
दे जाय मुझे जो जीने की
आभा रेखा एक  क्षीण।
---पी. सुधा राव

भस्मासुर

प्रकृति खड़ी रो रही थी
आंसुओं से आंचल भिगो रही थी
कलकल करती सरिता आई
बोली,
बोलो मां क्या बात है?
क्लांत क्यों तुम्हारा गात है?
गिरि भी दौड़ा दौड़ा आया
बोला,
हां, मां बोलो बोलो
दुःखित क्यों हो क्या बात है?
वन उपवन भी थे बुझे बुझे
मां की पीड़ा समझ रहे थे
चल रही थी छुरी शरीर पर
अंग, अंग रो रहे थे।
वसुधा भी आ गई वहां पर
बोलीबहना बोलो
कुछ तो अपना मुख खोलो
हरित मन क्यों मुर्झा गया?
पीलापन क्यों छा गया?
प्रकृति ने अपने आंसू समेटे
बोली धीरे धीरे
क्या सुनाउं क्या बताउं
तुम सब भी तो भोग रहे हो
इन भस्मासुरों को झेल रहे हो
यह मानव समझ रहा है
वह प्रगति कर, आगे बढ़ रहा है
पर वह यह भूल रहा है
हम से ही वह सब कुछ पा रहा है 
और हमें ही वह ध्वंस कर रहा है
उसने फिर अपनी पुत्री से पूछा
बेटी, सरिता बोलो तो
क्यों बदल गया तुम्हारा
यह उज्जवल गात श्यामल में?
कहां गये तुम्हारे पंछियों के सुर?
क्या हुए तुम्हारे आश्रित
वे मगर मीन व अन्य जलचर?
क्यों भरी है तू कूड़े करकट से
व भारी द्रव्य रसायन से?
और गिरि मेरे बच्चे,
तेरे अंग प्रत्यंग कहां गये
क्यों तू बौना हो गया?
क्या तुझमें सुरंग बनी?
क्या तुझसे गृह निर्माण हुआ?
कहां गये वे पेड़ पौधे,
कहां गये वे पशु पक्षी
पाते थे जो तुझ पे शरण?
कहां खो गया तेरा
विशाल माथा, ‍चौड़ा शरीर?
अब तो बादल भी कतराते हैं
बिन बरसे चले जाते हैं।
प्रकृति ने दुलराया वन ऊपवन को
बोली, समझती हूं पीड़ा तेरी
संपदा तेरी लुट रही है
तेरे अंग, अंग कट रहे हैं
तू समूल नष्ट किया जा रहा है
मैं मूक खड़ी देख रही हूं
कर कुछ नहीं पा रही हूं।
वसुधा की ओर मुड़कर बोली
जानती हूं बहन,
तेरा हाल भी बेहाल है।
सिमेंट कांक्रीट के जंगलों की भरमार है
कहीं भू स्खलन कहीं दरार है।
कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ है।
यह सब मुझसे खिलवाड़ का राज़ है।
पर्यावरण दूषित हो गया है।
मानव यह क्यों नहीं समझ रहा है?
वह विकास नहीं,
विनाश की ओर जा रहा है।
वन संपदा, पेड़ पौधे,
गिरि, सरिता सब दूषित हो गये
सिंधु, समतल भूमि भी अछूते न रहे
मानव अपने पैरों कुल्हाड़ी मार रहा है।
भस्मासुर की तरह
अपने ही पोषक को लील रहा है।
समझ नहीं रहा है वह
हमारे भक्षण से, उसका तर्पण है।
हमारे संरक्षण से ही उसका रक्षण है।
----पी. सुधा राव

कविता

 ज़िन्दगी की इस ढलती शाम मे
 एकाकीपन के एहसास ने
 विचारों की उठती ज्वार भाटा ने
 विरह वेदना की पीड़ा ने
 स्मृतियों के आनंदित पल ने
 कंप्यूटर का सहारा लिया
 खोजती थी कुछ पढ़ने का
 अनुभूति का ठिकाना मिला
 बेचैन दिल मे अनुभूति हुई
 जिसे कविता के रूप में लिख गई
 भावों को व्यक्त करने का
 काम सहज न था
 शब्दों के जाल को धागे में पिरोना
 काम अति कठिन था
 कर दिया काम सुगम
 अभिव्यक्ति का अनुभूति ने
 शब्द अभिव्यक्त होते गये
 मिला आधार जब अनुभूति का।
 ---- पी सुधा राव

 समय

समय चलता है तीव्रता से
पीछे पलट कर देखता नहीं
उसने क्या साथ दिया
कभी किसी का?
वह तो सिर्फ भागता है
पल में परिवर्तित होता है
भविष्य, वर्तमान में
और वर्तमान भूतकाल में
रह जाती है परछाईं
छोड़ जाता है पद चिन्ह
बना जाता है इतिहास
वह काल है, चक्र नहीं
घूम कर वापस नहीं आता
वह चलता नहीं
उड़ जाता है, द्रुत गति से
प्रकाश की किरणों से भी तेज
मैं उसे उधेड़ती हूं
ढूड़ने की कोशिश करती हूं
कुछ मधुर क्षण,
कुछ व्यथाएं,
कुछ गाथाएं,
भाग रही हूं, पीछे, पीछे
पकड़ने को उसे
और रहा सहा समय
सरक जाता है।
---पी सुधा राव


  इंतज़ार

हर आहट पर तुम्हारे
आने की चाहत है
पत्तों की खड़कन में
पदचाप का अहसास है
द्वार के दस्तक मे
तुम्हारे आने का आभास है
दूर से आती स्वर लहरी में
तुम्हारे होने का भास है
समीर के झोकों में
तुम्हारी सांसों का भान है
वर्षा की टप टप पड़ती बूंदों में
तुम्हारे धड़कन की पहचान है
आज भी तुम्हारा इंतज़ार है
तुम आओगे और
ले साथ जाओगे
दूर, बहुत दूर
इन तन्हाइयों से दूर
----पी सुधा राव